सोमवार, 21 जून 2021

कविता - बाबुल की गलियाँ


चित्र - गुगल से साभार

बाबुल तेरी गलियाँ याद आती है
छूटी सखी-सहेलियाँ याद आती है
बहती पवन लाई है
सौरभ का संदेशा
मुझे अधखिली कलियाँ याद आती है।
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती है


गरमी के वो दिन थे
पूरी छत बिस्तर बन जाती थी
बादल में लुकते-छिपते तारे थे
किसी भटके परींदे ने पंख पसारे थे
चंदा ने चाँदनी बिखराई थी
हवाओं ने लोरी गुनगुनाई थी
ऐसे में पास मेरे
दादी का दुलार और
बाबा का प्यार था
सपनों का संसार था और
माँ की बाँहों का हार था
भाइ-बहनों की तकरार के बीच
अपनी अठखेलियाँ याद आती है
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती है।


गुलाबी जाड़ों में ही
माँ को चिंता सताती थी
हाथ-पैर में हमारे
तेल की परतें जमती जाती थी
रजाई-कंबल से जुडता था नाता
काॅपी-किताबांे में झुकता था माथा
टिमटिम लालटेन की रोशनी में
अक्षरों का ज्ञान लेते थे
पढ़ाई से अधिक मस्ती में
हम तो हिलोरें लेते थे।
देर रात जाड़ों में लौटते बाबा की
साइकिल की घंटियाँ याद आती है
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती है।


बारिश की बूँदें गिरते ही
मन मयूर बन जाता था
तिनक-धिन-ताना
वो नाचता जाता था
कागज की बनती थी नाव
बिना चप्पल के ही दौड़ते थे पाँव
पोखर और नाले को नदी बनाकर
नाव बहाते जाते थे
हम छपाक-छई भीगते जाते थे
छींको का जब दौर चलता था
बाबा की फटकार
माँ का दुलार साथ-साथ चलता था
आज यादों की पगडंडियों पर
वो बूँदों की लड़ियाँ याद आती है
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती है।


कहने को तो छूटा तुम्हारा साथ
यादों ने अब भी थामा मेरा हाथ
कभी धूमिल न होती यादें
हरदम करती ये खुद से फरियादें
भूल गई जो बाबुल की गलियाँ
तो खिलेगी न कभी कोई कलियाँ
पल-पल बीती बतियाँ याद आती है
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती है।


इस कविता का आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...

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