शनिवार, 13 मई 2023

गीतकारी – 10 ओ दुनिया के रखववाले… बैजू बावरा






हैलो दोस्तों,

गीतकारी में बात करते हैं– फिल्मी गीतों के पीछे की कहानी के बारे में। आज का गीत है फिल्म बैजू बावरा का प्यारा सा गीत –

यह फिल्म पुराने ज़माने के शास्त्रीय गायक रहे गुजरात के बैजू के जीवन पर आधारित है इसलिए इसमें शास्त्रीय रागों का समावेश तो होना ही था। तो दोस्तों, इस तरह ये फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में शास्त्रीय रागों से सजी हुई सर्वश्रेष्ठ फिल्म कही जाती है। इस फिल्म में कुल तेरह गाने थे। हर गीत को संगीतकार नौशाद साहब ने अलग-अलग रागों से सजाया था। राग दरबारी, राग पीलू, राग भैरवी, राग मेघ आदि कई रागों से गीतों की लड़ियाँ सजी थीं। धुनों के धनी नौशाद साहब की प्यारी-प्यारी धुनों से सजे ये गीत आज इतने बरसों बाद भी जब हम सुनते हैं तो दिल झूम उठता है।

दोस्तों, अपने दौर के प्रसिद्ध निर्देशक विजय भट्‌ट फ़िल्म के लिए दिलीप कुमार और नर्गिस के नाम पर विचार कर रहे थे, लेकिन संगीतकार नौशाद साहब ने उन्हें समझाईश दी कि नए अभिनेता और अभिनेत्री को अवसर दिया जाना चाहिए। और फिर नवोदित कलाकार के रूप में भारतभूषण और मीना कुमारी का चयन किया गया। हालाँकि इसके पहले भी मीना जी फिल्मों में आती थी लेकिन महज़बीन नाम से बाल कलाकार के रूप में। मीनाकुमारी नाम उन्हें विजय भट्‌ट जी ने ही दिया। भारतभूषण और मीनाकुमारी के अभिनय से सजी ये फिल्म सन 1952 में रिलीज़ हुई थी।

दोस्तों, जब नौशाद साहब फ़िल्म बैजू बावरा के लिए गाने बना रहे थे तो उन्होने अपने पसंदीदा गायक तलत महमूद से गवाने का विचार किया था। लेकिन एक बार तलत महमूद साहब को धूम्रपान करते देखकर नौशाद जी ने अपना मन बदल लिया और रफ़ी साहब से इस फिल्म में गाने के लिए कहा। बैजू बावरा के इन गीतों ने रफ़ी साहब को फिल्मी गायन की मुख्यधारा से जोड़ दिया। इसके बाद नौशाद जी ने रफ़ी साहब को अपने निर्देशन में कई गीत गाने के अवसर दिए।

शायद आपने गौर किया हो कि फ़िल्म की एक और दिलचस्प बात यह थी कि इसके संगीतकार नौशाद, गीतकार शकील बदायूंनी और गायक मोहम्मद रफी तीनों ही मुस्लिम थे और उन्होंने मिलकर भक्तिरस से सजा हुआ भक्ति गीत मन तड़पत हरिदर्शन को आज… जैसी उत्कृष्ट रचना का सृजन किया था। यह कौमी एकता की एक बेजोड़ मिसाल है। इसी फ़िल्म के लिए नौशाद साहब ने तानसेन और बैजू के बीच प्रतियोगिता का गाना शास्त्रीय गायन के धुरंधर उस्ताद आमिर खान और पंडि़त डी.वी. पलुस्कर से गवाया। इस तरह गीतों की शास्त्रीयता को पैमाना बनाया जाए तो बैजू बावरा फिल्म को मील का पत्थर माना जा सकता है।

बात करते हैँ आज की गीतकारी के गीत – ओ दुनिया के रखवाले… की । राग दरबारी से सजे इस गीत के लिए नौशाद साहब ने रफी साहब को चुना। मोहम्मद रफी किसी भी गीत को पूरी शिद्दत से गाते थे। इस गीत के लिए उन्होंने एक-दो दिन नहीं बल्कि पूरे पंद्रह दिनों तक रियाज़ किया था। रिकॉर्डिंग के समय रफी साहब ने गीत में डूबकर तार सप्तक के उस बिंदु को छूआ था कि उनके गले से खून तक निकलने लगा था। आपको याद होगा गीत का वह अंतिम हिस्सा जब रफी साहब रखवाले शब्द को ऊँचे सुर में ले जाते हैं और गीत खत्म हो जाता है। रिकॉर्डिंग के बाद उनकी आवाज़ इस हद तक टूट गई थी कि कुछ लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि रफी साहब शायद कभी अपनी आवाज़ वापस नहीं पा सकेंगे।

लेकिन दोस्तों, ये रफी साहब थे, बचपन की गलियों से गुजरते हुए जिनके कानों में फकीरों के गीतों की स्वर लहरियाँ टकराई हों, जिन्होंने तेरह साल में जाने-माने गायक कुंदनलाल सहगल के बदले में स्टेज संभाला हो, जी हाँ, एक स्टेज शो के दौरान बिजली चले जाने पर अभिनेता और गायक सहगल जी ने गाने से मना कर दिया था तब श्रोताओं को खुश करने के लिए आनन-फानन में रफी साहब को गीत गाने के लिए कहा गया था, जिनकी आवाज़ को लोगों ने सराहा और खूब दुआएँ भी दीं। और फिर किस्मत के फरिश्ते जिस नन्हे रफी को संगीत की दुनिया का सरताज बनाने के लिए बेताब हों, ऐसे रफी साहब रागों के उतार-चढ़ाव को अपनी साँसों में बसाकर उससे मुँह कैसे मोड़ सकते थे?

ये सच है कि संगीत को अपना पूरा जीवन समर्पित कर देने वाला ये सुर साधक गले से खून निकलने के कारण कई दिनों तक गा नहीं पाया था लेकिन दोस्तों, कुछ साल बाद रफी साहब ने इस गाने को फिर से रिकॉर्ड किया और पहले से भी ऊंचे स्केल तक गाया और वो भी बिना किसी कठिनाई के।

फिल्म से जुड़ी एक और खास बात… फिल्म 'बैजू बावरा' में एक सीन था, जिसमें मीना जी नाव चलाती हैं. इस सीन को शूट करते वक्त नाव बड़ी-बड़ी लहरों की गिरफ़्त में आ गई थी और मीना जी नाव से गिर गई थीं. हादसा इतना भयानक था कि मीना जी लगभग डूब ही गई थीं, लेकिन फिल्म की टीम ने वक्त पर आकर उन्हें बचा लिया था। सन 1952 का साल सिनेमा जगत में फिल्म बैजूबावरा को समर्पित रहा। संगीतकार नौशाद साहब को उनके संगीत के लिए पहला फिल्म फेयर पुरस्कार मिला और मीना जी को भी बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्म फेयर अवार्ड मिला। इस तरह फिल्म बैजूबावरा 1952 की सर्वश्रेष्ठ संगीतमय फिल्म रही। बैजू बावरा फिल्म में गाने के बाद रफी साहब की किस्मत पलट गई और उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।


दोस्तों, गीतकारी में ऐसे ही गीतों की कड़ियाँ जुड़ती चली जाएँगी और हम जानेंगे गीतों के पीछे की कहानी। तो अगली बार फिर एक नए गीत के साथ मुलाकात होगी। आपकी दोस्त भारती परिमल

गीतकारी – 9 ए भाई जरा देख के चलो…. मेरा नाम जोकर

हैलो दोस्तो,

गीतकारी में बात करते हैं– फिल्मी गीतों के पीछे की कहानी के बारे में। आज का गीत है फिल्म मेरा नाम जोकर का प्यारा-सा गीत –

सन 1970 में बनी इस फिल्म का निर्माण और निर्देशन किया था शो मैन राजकपूर जी ने और फिल्म की स्क्रीप्ट लिखी थी – ख्वाजा अहमद अब्बास ने।

अभिनेता, निर्माता-निर्देशक राज कपूर जी अपनी फिल्म संगम की सफलता के बाद मेरा नाम जोकर को लेकर काफी उत्साहित थे। दर्शकों को भी इस जोकर के मंच पर आने का बेसब्री से इंतजार था क्योंकि छः साल से निर्माणाधीन इस फिल्म की कहानी आंशिक रूप से राज कपूर के स्वयं के जीवन पर आधारित थी। आखिर 18 दिसंबर 1970 में मेरा नाम जोकर रिलीज़ हुई थी. इस फिल्म में कई दिग्गज कलाकारों ने काम किया था. धर्मेंद्र , मनोज कुमार, दारा सिंह ,राजेंद्र कुमार, राजेनद्रनाथ, ओमप्रकाश, सिमी ग्रेवाल, पद्मिनी, अचला सचदेव जैसे जाने माने कलाकार थे। दोस्तों, इसी फिल्म से राजकपूर जी के बेटे ऋषिकपूर जी ने पहली बार अभिनय की दुनिया में कदम रखा था और राजकपूर के किशोरवय की भूमिका निभाई थी। वैसे इसके पहले फिल्म श्री चार सौ बीस में प्यार हुआ इकरार हुआ गीत के दौरान गीत के बोल – फिर भी रहेंगी ये निशानियाँ के दौरान जिन तीन बच्चों की झलक आपने देखी होगी, उनमें एक ऋषिकपूर भी थे।

जोश और जुनून से भरे राज साहब जब एक बार कुछ ठान लेते हैं तो उसे पूरा करने के लिए दिन-रात एक कर देते हैं। मेरा नाम जोकर फिल्म को जब उन्होंने बनाना शुरु किया तो इसे पूरा होने में एक दो नहीं पूरे 6 साल का समय लग गया। ये फिल्म उनका जागी आँखों से देखा एक हसींन ख्वाब थी, जिसे वे पूरी शिद्दत से पूरा करने में जुटे हुए थे। इस फिल्म को बनाने में राज साहब ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था समय, पैसा, जुनून, सब कुछ यहाँ तक कि अपना घर गिरवी रख कर वे कर्ज में डूब गए थे।

दोस्तों फिल्म को लेकर एक और खास बात – यह फिल्म बहुत लंबी थी. चार घंटे की इस फिल्म में एक नहीं बल्कि दो इंटरवल डाले गए थे. भारतीय सिनेमा के इतिहास में इसे सबसे लंबी फिल्मों में से एक माना जाता है.

लेकिन फिल्म की रीलिज़ के साथ ही बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को मिली असफलता से राज साहब सदमें में आ गए थे हाँ ये अलग बात है कि आगे चलकर फिल्म को जम कर तारीफ भी मिली और फिल्म हिट भी हुई और ऐसी हिट हुई कि आज भी फिल्म की कहानी, राज साहब का अभिनय, फिल्म के गीत सब कुछ लोगों को अपनी ओर खींचते हैं। फिल्म के सारे गीत आज भी लोगों की ज़ुबां पर है – कहता है जोकर सारा ज़माना, जाने कहाँ गए वो दिन, जीना यहाँ मरना यहाँ, ए भाई जरा देख के चलो.. जैसे कालजयी गीतों में जीवन का दर्द उभर कर सामने आया है। संगीतकार शंकर जयकिशन के संगीत से सजे ये गीत गुनगुनाने को विवश कर देते हैं।

बात करते हैं, आज की गीतकारी के गीत की, ए भाई जरा देख के चलो… गीत के बारे में। इस गीत के बोल लिखे थे – प्रसिद्ध कवि गोपाल दास नीरज जी ने। नीरज वो कवि थे जिनकी लेखनी ने कोरे कागजों को शानदार कविताओं और गीतों का उपहार दिया। उन कविताओं को, गीतों को स्वर मिला और रूपहले पर्दे पर नायक-नायिकाओं के होंठों पर सजकर इन गीतों ने एक नई पहचान पाई। नीरज जी हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में काव्य सृजन करने में माहिर थे। इस गीत को लिखने के पीछे भी मजेदार किस्सा है।

तो हुआ कुछ ऐसा कि राज साहब अपनी फिल्म मेरा नाम जोकर के जरिए जीवन को सर्कस और अपने जोकर के किरदार के माध्यम से आसान तरीके से लोगों को समझाना चाहते थे। इसके लिए उन्हें एक सटीक गीत की तलाश थी। चूँकि वे स्वयं भी गीत-संगीत की बारीकियों की समझ रखते थे। तो उनके दिमाग में सिचुएशन के हिसाब से भाव तो आ रहे थे लेकिन उन्हें किस तरह से सामने लाए, इसमें वे सफल नहीं हो पा रहे थे। भावो-विचारों, शब्दों, कल्पनाओं के जंगल में उलझे हुए वे एक बार गोपाल दास नीरज के साथ अपने मन की बात शेयर करते हुए कार से किसी रास्ते से गुजर रहे थे और तभी लाल बत्ती हो गई। यातायात नियमों का पालन करते हुए कार में ब्रेक लगाया ही था कि किसी दूसरे की गाड़ी से उनकी गाड़ी की टक्कर हो गई। हाँलांकि टक्कर मामूली सी थी लेकिन दूसरी गाड़ी में बैठे शख्स ने नसीहत देते हुए कहा- ऐ भाई, जरा देख के चलो। बस इसी बात ने नीरज जी का ध्यान खींच लिया और फिर थोड़ी देर पहले ही फिल्म की जिस सिचुएशन को लेकर बातचीत चल रही थी, उसी को ध्यान में रखते हुए नीरज जी ने ये बोल तैयार किए -

ए भाई, जरा देख के चलो, आगे ही नहीं पीछे भी,

दाएं ही नहीं बाएं भी। ऊपर ही नहीं, नीचे भी। ए भाई।

अपनी फिल्म के लिए यह गाना पा कर राज कपूर बेहद खुश हुए क्योंकि उन्हें ऐसा ही कुछ चाहिए था, जो नीरज जी ने उन्हें दिया था। अगले ही दिन उन्होंने गीत के ये बोल शंकर जयकिशन और मन्ना दा को सौंप दिए और सुर लय ताल में बाँधने के लिए कहा। शंकर जयकिशन जी ने जब इस अतुकांत रचना को देखा तो उन्हें यह बिलकुल अच्छी नहीं लगी। बिलकुल सीधे-सरल शब्दों का मेल। ऐसा लगा जैसे कोई डायलॉग पकड़ा दिया गया हो और उसे रागों में सजाने के लिए बोला जा रहा हो। संगीतकार शंकर जयकिशन और गायक मन्ना दा तीनों ही इस गीत के बोलों को पढ़कर परेशान हो गए। पर राज साहब का आदेश था तो पूरा तो करना ही था। संगीतकार शंकर जयकिशन द्वारा अनमने ढँग से उसे संगीतबद्ध किया गया और उसी अनमने ढंग से मन्ना दा ने भी गाया। क्योंकि शास्त्रीय संगीत के मर्मज्ञ होने के कारण मन्ना दा को इस गीत के बोलों में कहीं भी रिदम नज़र नहीं आ रही थी। अतुकांत शब्दों की टेढी़-मेढ़ी पगडंडियों को रागों की सड़क तक लाने में उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ी।

लेकिन दोस्तों, अतुकांत गीत भी कई बार अच्छी रचना में बदल जाते हैं ये गीत इसी अच्छी रचना का सजीव उदाहरण बन गया। भले ही शंकर जयकिशन ने अनमने ढंग से इस गीत में संगीत दिया हो पर ध्यान से सुनने पर कहीं न कहीं उनकी संगीत की बारीकियाँ इस गीत में नज़र आ ही जाती है। उसी तरह से भले ही मन्ना दा यह स्वीकार करे कि इसे मैंने अनमने ढँग से गाया है पर गीत की कुछ पंक्तियाँ जैसे कि पहला घंटा बचपन है दूसरा जवानी.. इस अंतरे में ही मन्ना दा की आवाज़ का उतार-चढ़ाव और डूबकर गानेवाली उनकी खासियत को अनदेखा नहीं किया जा सकता। तभी तो इस गीत के लिए सन 1972 में मन्ना दा को सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक का पुरस्कार भी मिला था।

यह पुरस्कार इस बात का प्रमाण है कि मन्नादा केवल शब्दों को ही नहीं गाते थे, अपने गायन से वह शब्द के पीछे छिपे भावों को भी ख़ूबसूरती से सामने लाते थे। संगीत की बारीकियों की समझ रखनेवाले राज साहब ने इस गीत के माध्यम से नीरज जी, मन्ना दा, शंकर-जयकिशन और पूरी फिल्म को अमरत्व प्रदान कर दिया। जीवन सर्कस है और इस सर्कस में आगे-पीछे, दांए-बाए, ऊपर-नीचे चारों ओर देख कर चलना ही पड़ता है। नहीं तेा कुछ भी हो सकता है। इसलिए ए भाई जरा देख के चलो…

दोस्तों, गीतकारी में ऐसे ही गीतों की कड़ियाँ जुड़ती चली जाएँगी और हम जानेंगे गीतों के पीछे की कहानी। तो अगली बार फिर एक नए गीत के साथ मुलाकात होगी। आपकी दोस्त भारती परिमल

गीतकारी – 8 क़स्मे वादे प्यार वफा... - उपकार

 

हैलो दोस्तो,


गीतकारी में बात करते हैं– फिल्मी गीतों के पीछे की कहानी के बारे में। आज का गीत है फिल्म उपकार का – कस्मे वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या… 1967 में रिलीज़ हुई फिल्म उपकार ने अभिनेता मनोज कुमार को भारत कुमार का उपनाम दिया। उपकार फिल्म के बनने की भी अपने आप में एक अलग ही कहानी है। पहले बात फिल्म की और उसके बाद फिल्म के गीत की। तो हुआ कुछ ऐसा कि फ़िल्म – शहीद का प्रदर्शन समारोह दिल्ली में आयोजित किया गया था। जिसमें भारत के विलक्षण प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी आए हुए थे। उन्होंने भगत सिंह के जीवन और बलिदान पर आधारित इस फिल्म को देखने के बाद मनोज कुमार से अनुरोध किया कि जय जवान जय किसान, के नारे पर लोगों को प्रेरित करने वाली कोई फ़िल्म बनाए। बात मनोज कुमार के दिल और दिमाग में बैठ गई और उन्होंने दिल्ली से मुंबई की ट्रेन यात्रा में ही ऐसी एक फ़िल्म “उपकार” की कहानी और संकल्पना तैयार कर ली।

पहली बार घोषित रूप से निर्देशन का उत्तरदायित्व लेने वाले मनोज कुमार को मुख्य भूमिका स्वयं ही निभानी थी और अपने छोटे सौतेले भाई के चरित्र की भूमिका में वे संघर्षरत नवोदित अभिनेता राजेश खन्ना को लेना चाहते थे, जिन्हें अभी तक एक भी फ़िल्म नहीं मिली थी, लेकिन उसी समय राजेश खन्ना ने अभिनय प्रतिभा प्रतियोगिता जीत ली और उन्हें प्रतियोगिता के वादों के मुताबिक़ तीन फ़िल्में भी मिल गईं, जिनमें चेतन आनन्द की “आख़िरी ख़त” सबसे पहले बनी|

कभी मनोज कुमार ने शशि कपूर से वादा किया था कि जब भी वे निर्देशन के क्षेत्र में उतरेंगे तब उन्हें अपनी फ़िल्म में अभिनय का अवसर देंगे| लेकिन छोटे भाई की भूमिका नकारात्मक भावों से भरी हुयी थी और शशि कपूर? वे स्वयं को नायक की भूमिकाओं में स्थापित करने के लिए संघर्षरत थे, ऐसे में मनोज कुमार को लगा इस भूमिका को करने से शशि कपूर को नुकसान हो सकता है, इसलिए उन्होंने अपने छोटे भाई की भूमिका निभाने के लिए प्रेम चोपड़ा को अनुबंधित कर लिया| इसके बाद मनोज कुमार की हर फिल्म में प्रेमचोपड़ा भी महत्वपूर्ण भूमिका में नज़र आने लगे।

फ़िल्म में एक बेहद महत्वपूर्ण चरित्र पैरों से अपाहिज मलंग का था, जो एक तरह से पूरे गाँव का रखवाला है| कबीर की तरह सधुक्कड़ी भाषा में सच बोलने वाला फक्कड़ मलंग चाचा जो नायक भारत यानी कि मनोज कुमार से बहुत स्नेह करता है और उसकी सच्चाई और ईमानदारी का कायल होने के बावजूद दुनिया के छल कपट से उसे सावधान भी करता रहता है| मलंग के किरदार के लिए मनोज कुमार ने चयन किया उस समय के मशहूर खलनायक प्राण का।

वैसे तो प्राण ने अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत में नायक की भूमिकाएं की थीं, किंतु उन्हें हीरोइन के साथ पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने-गाने में बेहद झिझक होती थी। इससे बचने के लिए ही उन्होंने खलनायक की भूमिकाएँ स्वीकार की थी। लेकिन गीतों से इस तरह घबराने वाले प्राण के ऊपर हिंदी फिल्मों के कुछ सबसे लोकप्रिय और यादगार गीत फिल्माए गए हैं। इनमें सबसे यादगार गीत है – हमारी आज की गीतकारी का गीत - कसमें वादे प्यार वफा… सब बाते हैं बातों का क्या…। यह फिल्म और यह गीत प्राण के फिल्मी कैरियर को बदलनेवाला साबित हुआ। वे खलनायक से चरित्र अभिनेता के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

श्यामलाल बाबू राय यानी कि इंदीवर जी द्वारा लिखे इस गीत को कल्याणजी-आनंद जी की जोड़ी ने संगीतबद्ध किया था। जब उन्हें यह पता चला कि यह गीत फिल्म में लंगड़े मलंग चाचा का किरदार निभा रहे प्राण पर फिल्माया जाएगा तो उन्होंने फिल्म के निर्माता निर्देशक मनोज कुमार से इसे किसी और पर फिल्माने का अनुरोध किया, लेकिन मनोज कुमार नहीं माने। किशोर दा ने जब सुना कि यह गीत प्राण पर फिल्माया जाएगा तो उन्होंने भी इसे गाने से मना कर दिया, यहां तक कि स्वयं प्राण के कहने पर भी वे तैयार नहीं हुए। अंत में यह गाना मन्ना दा से गवाया गया और उन्होंने इसे ऐसे भाव-विभोर होकर गाया कि यह गीत उनके ‘अमर गीतों’ में शामिल हो गया। मन्ना दा की सुरीली आवाज़ में सजा ये गीत इस फिल्म का निचोड़ है। इस गीत में जीवन की यथार्थता से दर्शकों को रूबरू कराया गया है। मन्ना दा को पक्का विश्वास था कि इस गीत के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार अवश्य मिलेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ जिसका दुख उन्हें ताउम्र रहा।

इस फ़िल्म में एक से बढ़कर एक बेहतरीन गीत थे। सभी गीतों ने बॉलीवुड में धूम मचाई थी। लेकिन कस्मे वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या…. इस गीत की एक अलग ही छवि है, जो अमिट है। संगीतकार जोड़ी कल्याणजी आनंदजी में से कल्याण जी ने अपने एक साक्षात्कार में फिल्मी गीतों को तीन भागों में बाँटा था – होमियोपैथिक, ऐलोपैथिक और आयुर्वेदिक। उनके अनुसार होमियोपैथिक में वे गानें आते हैं जिन्हें बनाते समय उनकी लोकप्रियता की जानकारी नहीं होती। या तो गाना बहुत अच्छा बनेगा या फिर बहुत ही बुरा बनेगा।

ऐलोपैथिक में वे गानें आते हैं जो शुरुआत मे तो सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं पर समय के साथ-साथ उनकी मधुरता कम होने लगती है जिस तरह से ऐलोपैथिक दवाइयों के बाद रीऐक्शन और साइड-ईफ़ेक्ट्स होते हैं। और आयुर्वेदिक गानें वो होते हैं जो पहले सुनने में उतने अच्छे नहीं लगते, पर धीरे-धीरे उनकी मिठास बढ़ती चली जाती है। कल्याणजी भाई की नज़र में "क़स्मे वादे प्यार वफ़ा..." एक आयुर्वेदिक गीत है।

इस गीत की कहानी सुनाते हुए कल्याण जी भाई कहते हैं कि इंदीवर जी ने एक गीत लिखा था जिसे उनके छोटे भाई आनंद जी ने अपने पास रख लिया था। मनोज कुमार ने उस वक़्त कहा था कि मैं इस गीत को अपनी फ़िल्म में इस्तेमाल करूँगा। जब फ़िल्म 'उपकार' बन रही थी, तो उस में ऐसे ही एक गाने की सिचुएशन आ गई जो प्राण साहब पर पिक्चराइज़ होना था। गंभीर रोल निभाने वाले प्राण साहब पर इस गीत का इस्तेमाल करना एक दांव खेलने जैसा था। लेकिन मनोजकुमार ने यह दांव खेला और क्या खूब नतीजा सामने आया। मन्ना दा ने इतनी ख़ूबसूरती के साथ इस गीत को गाया है कि लगता ही नहीं कि किसी ने प्लेबैक किया है। ऐसा लगता है जैसे प्राण साहब ख़ुद गा रहे हैं।"

कल्याणजी ने तो इस गीत की कहानी बहुत ही संक्षिप्त में कह दी पर बाद में जब आनन्दजी विविध भारती में साक्षात्कार के लिए आए तब उन्होंने इस गीत के बारे में विस्तार से बताया था। उन्होंने बताया कि कई गानें होते हैं न जो कभी बन जाते हैं और हम उसे सम्भाल कर रख लेते हैं! इस गीत के साथ भी ऐसा ही हुआ कि मुखड़ा बन गया और फिर मुखड़े के बाद एक अंतरा भी बन गया था। गाना उनके पास सुरक्षित रखा हुआ था।

उन दिनों वे अफ़्रीका से लौट कर आए थे। वहाँ पर उनका एक अफ्रीकी दोस्त था, जो यहाँ मुंबई की एक लड़की से प्यार करता था, उसने आनंद जी से संदेश भिजवाया कि उस लड़की से मिलकर कहना कि मैं आ रहा हूँ, मेरा इंतज़ार करे। आनंद जी ने दोस्त से वादा किया कि वे उनके दिल की बात उस लड़की से कह देंगे।

मगर मुंबई आते ही उनका एक्सीडेंट हो गया। पैर फ्रेक्चर हो गया। उन दिनों वे थोड़े दार्शनिक हो गए थे। हॉस्पिटल में बिस्तर पर लेटे हुए सोचते थे कि न मैंने अपनी माँ को याद किया, न पिता को याद किया, जब दर्द बढ़ा तो ईश्वर को याद करते हुए यही कहा कि सबको सुखी रखना और मेरी जान निकाल ले। बाहर निकलने के बाद लगा कि आदमी अपने दुख के सामने सबको भूल जाता है, पत्नी, बच्चे कुछ भी याद नहीं रहता। इसी सोच के साथ "क़स्मे वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या" का ख़याल आया। ये पंक्तियाँ दिमाग में बैठ गई थी।

बाद में पता चला कि उनका वो अफ्रीकी दोस्त तो इंदीवर जी का भी दोस्त है। तो एक दिन रास्ते में आते-आते इंदीवर जी से कहा, वो दोस्त बेचारा तो अभी भी उम्मीद कर रहा है कि मुंबई आऊँगा और शादी करूँगा, और यहाँ लड़की ने तो शादी कर ली है, मैं उसको क्या कहूँगा?' यह सुनकर इंदीवर जी बोले - "अरे ये सब बातें हैं बातों का क्या?", सुनकर लगा कि यह एक अच्छा मुखड़ा बन सकता है, चलो घर चलते हैं।

घर आकर सारी रात बैठ कर गाना तैयार किया। वहीं पर आनंद जी ने एक बात कही कि इंदीवर जी इस दुनिया का दस्तूर भी क्या खूब है कि एण्ड में इंसान को उसका अपना बेटा ही जलाता है। तो इंदीवर ने लिख दिया - "तेरा अपना ख़ून ही आख़िर तुझको आग लगाएगा"; उसके बाद आनंद जी बोले कि 'क्या कर दिया तुमने?' 'अब मैं घर नहीं जाऊँगा, अब तो डर लगने लगा है मुझे'। और फिर दोनों वहीं बैठ कर दूसरी बातें करते रहे क्योंकि गीत बहुत ही भारी हो गया था उसमें कुछ और जोड़ने का ख्याल भी उन्हें डरा रहा था। तो गाना यहीं तक बनाकर छोड़ दिया गया। और इस तरह से सामने आया एक ऐसा गीत जो अपने आप में पूरा है। इसके बाद और किसी शब्दमाला की इसमें आवश्यकता ही नहीं रही।

मन्ना दा के स्वर में यह गीत एक अमर गीत बन गया। कमाल की बात यह है कि आज इस गीत को बने हुए 50 से भी अधिक साल हो गए हैं पर समय का कोई असर इस गीत पर नहीं हो पाया है। जीवन दर्शन हर दौर में, हर युग में, एक ही रहता है। इस गीत में ज़िंदगी की कड़वी सच्चाइयों को इतने सरल शब्दों में कहा गया है कि आज भी इस गीत को सुनते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

दोस्तों, गीतकारी में ऐसे ही गीतों की कड़ियाँ जुड़ती चली जाएँगी और हम जानेंगे गीतों के पीछे की कहानी। तो अगली बार फिर एक नए गीत के साथ मुलाकात होगी। आपकी दोस्त भारती परिमल

गीतकारी – 7 ये चाँद सा रोशन चेहरा… कशमीर की कली




हैलो दोस्तो,


गीतकारी में बात करते हैं– फिल्मी गीतों के पीछे की कहानी के बारे में। आज का गीत है फिल्म कश्मीर की कली का प्यारा सा गीत –


ये चांद सा रोशन चेहरा, ज़ुल्फ़ों का रंग सुनहरा
ये झील सी नीली आँखें, कोई राज़ है इनमें गहरा
तारीफ़ करूँ क्या उसकी, जिसने तुम्हें बनाया


1964 में शक्ति सामंत द्वारा निर्मित और निर्देशित कश्मीर की कली फिल्म में संगीत ओ॰ पी॰ नय्यर का है और गीत लिखे हैं एस॰ एच॰ बिहारी ने। गीतकार एस.एच बिहारी यानी कि शुमसुल हुदा बिहारी, भारतीय फिल्म जगत के गीतकारों की सूची में शामिल एक जाना-पहचाना नाम है। उनके गीतों में चांद अक्सर रहता था। इस फिल्म में अभिनेता शम्मी कपूर के साथ अभिनेत्री की भूमिका निभाई थी शर्मिला टैगोर ने। दरअसल इसी फिल्म से शर्मिला टैगोर ने डेब्यू किया था। अभिनेता शम्मीकपूर के सदाबहार लटके-झटके और शर्मिला जी की मासूमियत से भरी मुस्कान ने फिल्म को हीट फिल्मों की श्रृंखला में लाकर खड़ा कर दिया। इसके साथ ही एसएच बिहारी के गीत, ओपी नैयर के संगीत और मुहम्मद रफी एवं आशा भोसले की आवाज का ऐसा जादू चला कि आज भी इसके गाने खूब गुनगुनाये जाते हैं।


दोस्तों, जब फिल्म के गीतों की बात चल ही रही है तो एक राज़ की बात से परदा उठाती हूँ –
पहले इस फिल्म का संगीत फिल्मी दुनिया के जानेमाने संगीतकार शंकर जयकिशन देने वाले थे। लेकिन ओ.पी. नैयर जी ने शम्मीकपूर जी को अपना संगीत सुनाकर उनका दिल जीत लिया। सुर लय और ताल की बारीकियों की समझ रखने वाले शम्मीकपूर उनके संगीत से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बतौर संगीतकार ओपीनैयर को ही अपनी इस फिल्म में लेने का अनुरोध शक्तिसामंत जी से किया। इस तरह ओपी नैयर के संगीत का जादू इस फिल्म में चला और क्या खूब चला।
फिल्म का गीत – ये चाँद सा रोशन चेहरा… में एक जुमला है – तारीफ़ करूँ क्या उसकी जिसने तुम्हें बनाया। शम्मी कपूर चाहते थे कि अपनी प्रेमिका के प्रति अपने जज़्बे को उभारने के लिए इस जुमले को अलग-अलग तरह से दोहराया जाए। जब उन्होंने अपना ये सुझाव नैयर जी के सामने रखा तो उन्हें यह बात बिलकुल पसंद नहीं आई वे अड़ गए कि इस तरह से गाना लंबा और उबाऊ हो जाएगा। शम्मी जी दुखी हो कर रफ़ी साहब के पास गए। रफ़ी साहब ने उनकी परेशानी सुनी उस पर सोचा और फिर कहा कि मैं नैयर को समझाता हूँ। नैयर जी ने उनसे भी वही कहा जो शम्मी जी से कहा था, पर रफ़ी साहब ने उन्हें ये कहकर मना लिया कि अगर वो ऐसा चाहता है तो एक बार कर के देखते हैं अगर तुम्हें पसंद नहीं आया तो हटा देना।


जब गीत पूरा बना तो सब को अच्छा लगा और शम्मी कपूर जी के इस प्रयोग को नैयर साहब और रफ़ी साहब दोनों ने सराहा।


दोस्तों, ये घटना इस बात का भी प्रमाण है कि आगे चलकर शम्मी कपूर और रफ़ी साहब की जोड़ी इतनी सफ़ल क्यूँ हुई। इस फिल्म के सभी गीत कर्णप्रिय हैं। हर गीत में शम्मी जी का रूमानियत से भरा एक अलग अंदाज ही सामने आता है। जब शम्मी कपूर नैयर की धुनों पर नाचते हैं तो लगता है वादी भी उनके साथ नाच रही हो। वैसे भी शम्मी जी के बारे में यह बात प्रसिद्ध है कि वे अपने गीतों में गीतों की पंक्तियों पर नहीं, शब्दों पर नहीं बल्कि अक्षर – अक्षर पर थिरकते हैं। उनका अंग-अंग थिरकता था। उनकी हर अदा ही निराली होती थी। तभी तो उनके उपर फिल्माए गए कश्मीर की कली फिल्म के गीतों में कश्मीर की केसर की क्यारियाँ भी झूम उठी है। सारी वादियों में जैसे प्यार समा गया है।


बताया जाता है कि शूटिंग शुरू होते ही कश्मीर में वर्षा शुरू हो गयी। जो लगातार 25 दिन चलती रही, फिल्म यूनिट ने बोरी-बिस्तर बांध लिया था कि ऐसे हालात में शूटिंग करना संभव ही नहीं है इसलिए वापस लौटा जाए लेकिन शम्मी जी की जिद के कारण यूनिट रुक गयी। और फिर 29 दिन तक बारिश नहीं हुई। आखिर कश्मरी की कली को कश्मीर की बहारों में ही खिलना था। तो कली खिली और क्या खूब खिली कि इसकी महक आज भी हमारे अहसासों में समाई हुई है।


दोस्तों, गीतकारी में ऐसे ही गीतों की कड़ियाँ जुड़ती चली जाएँगी और हम जानेंगे गीतों के पीछे की कहानी। तो अगली बार फिर एक नए गीत के साथ मुलाकात होगी। आपकी दोस्त भारती परिमल

गीतकारी – 6 नीले गगन के तले धरती का प्यार पले… हमराज़


हैलो दोस्तो,


गीतकारी में बात करते हैं– फिल्मी गीतों के पीछे की कहानी के बारे में। आज के गीत के साथ हम सैर करते हैं प्रकृति की घनी वादियों की, नीले आसमां की। जी, हाँ दोस्तों आज का गीत है नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले…. फ़िल्म ’हमराज़’ का ये सुरीला गीत आप सभी ने कई बार सुना होगा, पर क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि इस गीत का मुखड़ा और अंतरा एक ही धुन पर रखा गया है? संगीत प्रेमियों से यह बात छिपी हुई नहीं है। लेकिन आम लोग तो इस बारे में सोचते भी नहीं है, वो तो गीत अच्छा लगा, गुनगुनाया और दिल में बसा लिया। बस गीतों के साथ इतना ही संबंध हम जोड़ पाते हैं लेकिन जब एकांत में गीतों से, गीतों के रागों से, गीतों के बोलों से दोस्ती करते हैं, तो उसकी परत दर परत खुलती चली जाती है, उससे नाता गहरे से गहरा होता चला जाता है।
तो बात है – नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले गीत की। यह गीत पहाड़ी और भूपाली दोनों रागों का मिश्रण है। साहिर जी के बोल, रवि साहब का संगीत और महेन्द्रकपूर जी की आवाज से सजा ये गीत दार्शनिकता की चरम सीमा को छूता हुआ महसूस होता है – जैसे कि ये पंक्तियाँ – नदिया का पानी, दरिया से मिल के, सागर की ओर चले.. नीले गगन के तले धरती का प्यार पले, ऐसे ही जग में आती है सुबहें ऐसे ही शाम ढले।
इस गीत के लिए गायक महेन्द्र कपूर को सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था। हमराज़ फिल्म के गीत उनके कैरियर के महत्वपूर्ण गीत साबित हुए। दोस्तों, उस दौर में बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्मों के सारे गाने मोहम्मद रफ़ी ही गाते थे। कहा जाता है कि 1962 में एक फिल्म में गाई जाने वाली कव्वाली को लेकर रफी साहब और बी.आर. चोपड़ा के बीच मनमुटाव हो गया और फिर उन्होंने अपने बैनर से रफी साहब को अलविदा कहते हुए महेन्द्र कपूर से नाता जोड़ लिया।
दरअसल चोपड़ा साहब वो कव्वाली रफी और महेन्द्रकपूर दोनों से गवाना चाहते थे और रफी साहब का कहना था कि महेन्द्रकपूर भी उनके अंदाज में ही गाते हैं। ऐसे में दोनों की आवाज का उतार-चढ़ाव एक जैसा ही होने के कारण कव्वाली में कोई नवीनता नहीं आ पाएगी। और रफी साहब ने इसे गाने से मना कर दिया और फिर चोपड़ा साहब की उस फिल्म में ये कव्वाली महेन्द्र कपूर और बलवीर ने गाई।
दूसरी तरफ गीत नीले गगन के तले…. इसे मुखड़ा अंतरा मुखड़ा अंतरा इस तरह के क्रम में न गाते हुए एक सुर में ही गाया गया है। सच्चाई से सजे सादगी के बोलों को सुर के धागों में पिरोते हुए बड़ी ही सरलता से गाया गया है। वास्तव में ये गीत धुन पर लिखा गया है। वैसे साहिर जी यह बिलकुल पसंद नहीं करते थे कि धुन पहले बनाई जाए और बोल बाद में लिखे जाए।
संगीतकार रवि जी ने स्वयं इस बात की पुष्टि करते हुए कहा था कि दरअसल हमराज़ फिल्म में ऐसी एक सिचुएशन बनी कि पहाड़ों में एक धुन लगातार गूँज रही है। ये गूँजती हुई धुन बनाने के लिए उनसे कहा गया। और रवि साहब ने जो धुन बनाई, वो सभी को बहुत पसंद आई।
अब दोस्तों रवि साहब ने जब अपनी धुन की तारीफ सुनी तो उन्होंने उस धुन पर गाना बनाने का सुझाव दिया। उन्होंने तो केवल मुखड़े की ही धुन बनाई थी। अंतरे की तो बनाई ही नहीं थी। अब धुन पर बोलों को फिट करने से परहेज करनेवाले साहिर जी को भी यह धुन इतनी पसंद आई थी कि वे दूसरे दिन इसके मुखड़े पर ही गीत लिख कर ले आए। यहाँ तक कि पूरे गीत के अंतरे भी उन्होंने इसी धुन पर तैयार कर लिए थे। और इस तरह से मुखड़े और अंतरे की धुन में कोई अंतर न होते हुए पूरा एक गीत हमारे सामने आ गया। साहिर का मतलब जानते हैं आप? साहिर यानी जादूगर। इस जादूगर पर हमेशा यह आरोप लगते रहे हैं कि वे अपने गीतों में उर्दू लफ्ज़ों का ही इस्तेमाल करते हैं। इस आरोप को नकारा साबित करते हुए उन्होंने इस गीत में अधिक से अधिक हिंदी शब्दों का प्रयोग किया है। नदिया का पानी दरिया से मिलके सागर की ओर चले, बलखाती बेलें मस्ती में खेलें पेड़ों से मिल के गले… पूरा गीत हिंदी के मनभावन शब्दों में पिरोया गया है।
राजकुमार और विम्मी पर फिल्माया गया ये गीत एक सदाबहार गीत है। इस गीत की सादगी इस बात का सुबूत है कि किसी गीत को कालजयी बनाने के लिए न तो बहुत ज्यादा वाद्यंत्रों की जरूरत है और न ही भारी भरकम शब्दों की। बस दिल से निकले बोल, दिल से निकली आवाज और दिल से बनी धुन ही गीत को अमर करने के लिए काफी है।
तो दोस्तो, इस तरह बना एक सदाबहार गीत – नीले गगन के तले धरती का प्यार पले…
गीतकारी में ऐसे ही गीतों की कड़ियाँ जुड़ती चली जाएँगी और हम जानेंगे गीतों के पीछे की कहानी। तो अगली बार फिर एक नए गीत के साथ मुलाकात होगी। आपकी दोस्त भारती परिमल

गीतकारी – 5 चल री सजनी अब क्या सोचे… बंबई का बाबू





हैलो दोस्तो,
बात करते हैं– फिल्मी गीतों के पीछे की कहानी के बारे में। आज हम बात करते हैं 1960 में निर्माता निर्देशक राज खोसला द्वारा बनाई गई फिल्म बंबई का बाबू के गीत चल री सजनी अब क्या सोचे, कजरा ना बह जाए रोते-रोते…. दर्द भरे इस गीत के गायक थे मुकेश। फिल्म के निर्माता राजखोसला जी पार्श्वगायक बनने की तमन्ना लिए हुए मुंबई आए थे लेकिन हाथों की लकीरों में तो निर्माता बनना लिखा हुआ था। शुरुआत में फिल्म बाज़ी में गुरुदत्त जी के साथ सहायक निर्देशन करने के बाद उन्होंने स्वतंत्र रूप से निर्देशन शुरु किया और फिर 1960 में जाल मिस्त्री के साथ मिलकर बंबई का बाबू फिल्म का निर्माण किया।
दोस्तों, यह वही राज खोसला हैं जिनके काबिले तारीफ निर्देशन ने हिन्दी सिनेमा को सीआईडी, वो कौन थी और मेरा साया जैसी रहस्यमयीं फिल्में दीं। उनके निर्देशन में बनी ‘बम्बई का बाबू’ एक ऐसी फिल्म है जिसे बार-बार देखने को मन करता है। उस जमाने में नायक-नायिका के अलावा फिल्म को हिट बनाने में योगदान होता था - गीत और संगीत का। मजरूह सुलतानपुरी के गीतों से सजी इस फिल्म को संगीत दिया था सचिन देव बर्मन ने। मुकेश के ‘चल री सजनी अब क्या सोचे’ तथा मुहम्मद रफी के साथ आशा भौंसले के स्वरबद्ध किए गीत 'दीवाना मस्ताना हुआ दिल जाने कहां हो के बहार आयी’ देखने में भोला है… ये सभी गीत आज भी उसी शिद्दत से सुने जाते हैं। राजिन्दर सिंह बेदी द्वारा लिखी गयी पटकथा अमेरिकी लेखक ओ. हेनरी की एक लघुकथा से प्रेरित कही जा सकती है। बात करते हैँ - गीत चल री सजनी अब क्या सोचे, गीत की। अपने ज़माने की मशहूर अभिनेत्री सुचित्रा सेन और अभिनेता देवआनंद पर यह गीत फिल्माया गया था। यह एक विदाई गीत है। हिंदी फिल्मों में पुराने विदाई गीतों की बात करें तो सबसे पहला गीत जो हमारे होठों पर आता है वो है – बाबुल की दुआएँ लेती जा। या फिर पी के घर आज प्यारी दुलहनिया चली लेकिन इस विषय पर और भी बहुत ही खूबसूरत गीत बने हैं और बनते रहेंगे। फिर भी चल री सजनी अब क्या सोचे… गीत में मुकेश की आवाज के साथ जो दर्द बहा है, इसे सुनकर तो इस गीत को फिल्म संगीत का पहला विदाई गीत कहा जा सकता है।
बंबई का बाबू फिल्म की कहानी के अनुसार यह गीत फिल्म में एक खास जगह रखता है। इस गीत में एक तरफ बाबुल के घर से विदा होती बेटी का दर्द है तो दूसरी तरफ अपने प्रेमी और फिल्म के नायक देव आनंद से बिछड़ने की पीड़ा भी है। दर्द के यह दोनों पहलू सुचित्रा सेन के अभिनय से सजीव हो उठे। गीत और भी गमगीन बन गया।
फिल्म के बाकी गीतों में रफी साहब की आवाज थी लेकिन इस गीत के लिए सचिन देव बर्मन ने धुन तैयार कर ली थी। वे चाहते थे कि किशोर कुमार इस गीत को अपनी आवाज दे। इसके लिए उन्होंने किशोर कुमार से बात भी कर ली थी। किशोर कुमार ने जवाब तो हाँ में दिया था पर वे समय नहीं दे पा रहे थे। वैसे तो वे सचिन देव बर्मन का बहुत सम्मान करते थे लेकिन स्वभाव से मनमौजी थे। जब भी सचिन दा उन्हें गीत की रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो बुलाते वे कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देते थे। समय बीता जा रहा था और आज कल करते हुए रिकॉर्डिंग टलती जा रही थी। सचिन दा ने कई दिनों तक इंतजार किया। आखिर किसी ने उन्हें सलाह दी कि दादा, आप तो किशोर दा के चक्कर में न पड़े और किसी और से यह गीत गवा लीजिए। आखिर सचिन दा को निराश होकर किशोर की आवाज का मोह त्याग कर किसी और की तलाश करनी पड़ी और किसी और को खोजते हुए उनका ध्यान गया मुकेश की तरफ। उन्होंने मुकेश से इस गीत को गवाया और मुकेश ने जो आवाज़ का दर्द इस गीत में उड़ेला कि गीत अमर हो गया। गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस गीत के साथ मुकेश ने पूरा न्याय किया। चल री सजनी अब क्या सोचे, कजरा ना बह जाए रोते रोते…. दर्द भरा एक ऐसा नगमा है जो मुकेश को याद करते हुए बरबस गुनगुनाने को विवश कर जाता है। इस गीत में सचिन देव बर्मन ने कोरस का बहुत अच्छी तरह से प्रयोग किया है। केवल शहनाई की गूँज और कोरस ने ही गीत में जान डाल दी है।
दोस्तों, जब आप ये गीत ध्यान से सुनेंगे तो पाएँगे कि गीत के आखरी में करीब डेढ़ मिनट का संगीत शहनाई और कोरल सिंगिंग से ही बना है। एक ऐसा संगीत जो कानों से सीधे दिल में उतरता है। बोलों में शब्दों का ऐसा तालमेल और फिर दर्द भरे सुरों का नजराना। सचमुच मजरूह सुल्तानपुरी, मुकेश और सचिन दा सभी ने मिलकर इस विदाई गीत को अमर कर दिया।
हालाँकि फिल्म दर्शकों के बीच सराही गई लेकिन सराहना के बावजूद इसे बॉक्स आॅफिस पर अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। फिल्म की असफलता ने राज खोसला जी आर्थिक तंगी में फंस गए। असफलता का मुख्य कारण नायक-नायिका को भाई-बहन के रूप में दिखाया जाना रहा क्योंकि दर्शकों ने इसे स्वीकार नहीं किया और फिल्म कामयाबी का वो मुकाम हासिल नहीं कर सकी, जिसकी कल्पना खोसला जी ने की थी। पहले इस फिल्म में नायिका के रूप में मधुबाला को लिया जाना था फिर राजखोसला जी ने सुचित्रा सेन को रूपहले पर्दे पर उतार कर इस फिल्म की शुरुआत की।
अभिनेत्री सुचित्रासेन की अभिनय कला से सजा ये विदाई गीत सचमुच एक अमर गीत बन पड़ा है। बेटी का बाबुल से बिछड़ने का दर्द, सखियों से दूर होने की पीड़ा, एक पिता की लाचारगी और ममत्व का सूना आँगन, मेंहदी से सजे हाथों में बचपन की यादों का अमिट खजाना और आँखों में केवल आँसूआ का उफनता ज्वार… सब कुछ कुछ पलों में ही वातावरण को गंभीर बना देता है और आँखें बरबस ही भीग जाती है।
गीतकारी में ऐसे ही गीतों की कड़ियाँ जुड़ती चली जाएँगी और हम जानेंगे गीतों के पीछे की कहानी। तो अगली बार फिर एक नए गीत के साथ मुलाकात होगी। आपकी दोस्त भारती परिमल

गीतकारी – 4 जय जय शिव शंकर… आप की कसम


 

हैलो दोस्तो,

बात करते हैंफिल्मी गीतों के पीछे की कहानी के बारे में। हिंदी सिनेमा के मशहूर डायरेक्टर और प्रोड्यूसर जे. ओमप्रकाश की डेब्यू फिल्म 'आप की कसम' के गीत आज भी लोगों की जुबां पर हैं। 1974 में रिलीज़ हुई इस फिल्म में राजेश खन्ना, मुमताज और संजीव कुमार ने मुख्य भूमिका निभाई थी। फिल्म का संगीत आर.डी बर्मन ने दिया था। 'जय जय शिव शंकर', 'जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम', 'करवटें बदलते रहे सारी रात' जैसे यादगार गीत इस फिल्म की पहचान बने। गीतकार आनंद बक्शी के इन गीतों को किशोर दा और लता दीदी ने अपनी आवाज दी।

महाशिवरात्रि का पर्व हो और सुपरटहिट सॉन्ग ‘जय जय शिव शंकर’ (Jai Jai Shiv Shankar) का शोर न हो, तो पर्व अधूरा सा लगता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि फिल्म का सबसे पसंद किया जाने वाला ये गाना पहले ऐसा नहीं होने वाला था। पंचम दा यानी कि आर डी बर्मन ने गाने के लिए कोई और ही धुन तैयार की थी, लेकिन जब उन्होंने राजेश खन्ना को अपने ही अंदाज में गाने को गुनगुनाते हुए देखा तो उनको वह धुन काफी पसंद आई। इसके बाद उन्होंने काका के अंदाज में ही फिल्म के गाने को शूट किया था। पूरी मस्ती के साथ मुमताज और राजेश खन्ना ने इस गीत को फिल्माया है।

इस गीत से जुड़ा हुआ एक और किस्सा मैं आपको बताती हूँ –

किशोर कुमार के किस्सों में शरारतें शामिल न हों, तो वो शरारतें ही अपनी पहचान खोने लगती हैं। जय जय शिव शंकर गीत जिसे सुनकर आज भी लोग झूमने से नहीं रूकते, इस गाने में भी कुछ ऐसा हुआ जिसको सुनने के बाद आपके चेहरे पर भी मुस्कान आ जाएगी.

दरअसल, इस गीत को संगीतकार आरडी बर्मन बेहद खास बनाना चाहते थे. इसके लिए उन्हें किशोर दा और लता जी के साथ कोरस गाने वाले कई गायको की जरूरत थी. अब कोरस गायकों को लाने के साथ ही गाने का बजट बढ़ते-बढ़ते 50 हजार पहुंच गया, जो फिल्म के डायरेक्टर जे ओमप्रकाश को बहुत ज्यादा लग रहा था.

अक्सर शूटिंग के दौरान जे. ओमप्रकाश बड़बड़ाया करते थे ‘पचास हजार खर्च करा दिए.’ हर बात में उनका यूं बड़बड़ाना किशोर और पंचम दा को खूब खटकता था. गाने की रिकॉर्डिंग के दौरान दोनों बंगाली बाबू यानी कि किशोर और पंचम दा ने पचास हजार रुपए वाली बात को गाने के अंत में इस तरह से डाला कि लोगों को पता भी न चल और मजा भी आ जाए।

गीत के आखिर में जोर-जोर से ढोल नगाड़ों और तेज संगीत के बीच किशोर दा कहते हैं ‘बजाओ रे बजाओ ईमानदारी से बजाओ’. इसी के तुरंत बाद उन्होंने जे. ओमप्रकाश का वो बड़बड़ाना भी जोड़ दिया कि ‘पचास हजार खर्च करा दिए’. रिकॉर्डिंग के बाद जब फिल्म की पूरी यूनिट के सामने इस गाने को बजाया गया तो किशोर दा की इस हरकत ने सभी लोगों को हैरान कर दिया. लेकिन जे. ओमप्रकाश की सदाशयता ही कहिए कि इसे गीत से हटाया नहीं गया और इस तरह से ये वाक्या भी गीत के साथ-साथ अमर हो गया।

आप की कसम फिल्म की कहानी और सुपर हीट गीतों के कारण जे ओमप्रकाश अपनी पहली फिल्म से हिट साबित हो गए थे। बॉलीवुड में साउथ की फिल्मों के रीमेक पहले से ही बनाए जाते रहे हैं। आप की कसम फिल्म भी मलयालम फिल्म ‘वाझवे मय्यम’ जो कि (1970) में रीलीज हुई थी, उसी फिल्म का रीमेक थी। हालाँकि एस. सेतुमाधवन की फिल्म वाझवे मय्यम से 'आप की कसम' फिल्म का अंत अलग रखा गया था।

दोस्तों, गीतकारी में ऐसे ही गीतों की कड़ियाँ जुड़ती चली जाएँगी और हम जानेंगे गीतों के पीछे की कहानी। तो अगली बार फिर एक नए गीत के साथ मुलाकात होगी। आपकी दोस्त भारती परिमल

गीतकारी – 3 एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा… 1942 लवस्टोरी


 

हैलो दोस्तो, बात करते हैं– फिल्मी गीतों के पीछे की कहानी के बारे में। गीत है – 1942 अ लवस्टोरी का प्यारा सा गीत – एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा… जैसे खिलता गुलाब, जैसे शायर का ख्वाब जैसे उजली किरण, जैसे बन में हिरन, जैसे चांदनी रात, जैसे नरमी की बात जैसे मन्दिर में हो एक जलता दिया…. 21 रूपकों से सजा जावेद अख्तर का लिखा ये गीत दिल में मखमली अहसास जगाता है। जावेद अख्तर यानी मशहूर शायर जाँनिसार अख्तर के बेटे और अभिनेता निर्माता निर्देशक फरहान हख्तर के पिता। जिनके लिखे गीत आज भी युवाओं को रोमांचित कर देते हैं।

कुमार शानू की गायकी, पंचम दा का संगीत और जावेद अख्तर के बोल से सजा ये गीत 1994 से लेकर अब तक युवाओं की पसंद बना हुआ है और कोई शक नहीं कि आगे भी रहेगा। क्योंकि इस गीत में प्यार है, जादूगरी है, कल्पनाओं का सजीला आसमां है।

फिल्म 1942 अ लवस्टोरी सन् 1994 में रीलीज हुई थी। दोस्तों, आप सभी को आश्चर्य होगा कि जब यह फिल्म बन रही थी, तब इस फिल्म में यह गाना था ही नहीं। फिल्म के निर्देशक थे विधु विनोद चोपड़ा और उन्हें असिस्ट कर रहे थे संजय लीला भंसाली। फिल्म को लेकर एक मीटिंग हो रही थी जिसमें फराह खान, जावेद अख्तर, पंचम दा सहित कई लोग मौजूद थे। फिल्म की स्क्रीप्ट सुनने के बाद जावेद अख्तर ने एक सीन को लेकर कहा कि यहाँ पर एक गीत होना चाहिए। सभी की राय थी कि इस सीन में अभी तो लड़के ने बस में लड़की को पहली बार देखा है, ना कोई बात ना कोई मुलाकात फिर गीत कैसे? लेकिन जावेद साहब अपनी बात पर अड़े रहे कि यहाँ पर एक गीत होना ही चाहिए।

आखिर जावेद जी से कहा गया कि ठीक है, अगले बुधवार को फिर से चार बजे मीटिंग करते हैं। तब आप इस सीन से जुड़ा गाना लिखकर ले आइएगा। बुधवार को सही समय पर जावेद साहब मीटिंग के लिए घर से निकल तो गए लेकिन उनके पास कोई गीत नहीं था। वे रास्ते भर यही सोचते रहे कि जाकर कहूँगा क्या? उस समय वे स्वयं ही अपनी कार ड्राइव किया करते थे। गीत के बारे में सोचते-सोचते वे कार चला रहे थे। रास्ते में थियेटर के बाहर ट्रक खड़ा दिखा। उसे देखकर ही दिमाग में गीत के बोल आए।

बस फिर क्या था, मीटिंग में जब गीत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने गीत के बोल बताते हुए कहा – गीत के बोल रहेंगे - एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा… फिर उसे जैसे ये जैसे वो… इस तरह से अलग-अलग रूपक से बाँधा जा सकता है। जावेद साहब को लगा कि उनका यह आइडिया किसी को पसंद नहीं आएगा और गीत लिखने की बात टाल दी जाएगी लेकिन हुआ कुछ उल्टा ही… क्योंकि एक अमर गीत की तैयारी जो चल रही थी।

उस समय वहाँ संगीतकार राहुल देव बर्मन भी मौजूद थे। उन्होंने जावेद जी से तुरंत कहा, 'लिखो इस गाने को तुरंत।' अभी चाहिए।  इतनी जल्दबाजी होगी, इसका अंदाजा तो जावेद साहब को भी नहीं था। पर स्थिति केा देखते हुए उन्होंने तुरंत एक अंतरा तो लिख ही दिया। जैसे ही अंतरा तैयार हुआ कि पंचम दा ने दो मिनट में उस अंतरे की धुन तैयार कर दी।

सात रूपकों से सजा ये पहला अंतरा तो उसी समय तैयार हो गया पर बाकी के रूपकों से सजे अंतरों को तैयार करने में तीन से चार दिन लग गए। फिल्म आई और इसके सारे गीत खूब पसंद किए गए। खास कर ये गीत तो लोगों की जुंबा पर चढ़ गया था। अभिनेत्री मनीषा कोइराला भी इस गीत में बयां होती लड़की जैसी ही प्यारी और मासूम दिखी। फिल्म के संगीतकार आर.डी बर्मन यानी हमारे प्यारे पंचम दा इस गीत की लोकप्रियता को अपने जीते जी नहीं देख सके। लेकिन इस गीत की गुनगुनाहट के साथ सभी उन्हें जरूर याद करते हैं।

दोस्तों, गीतकारी में ऐसे ही गीतों की कड़ियाँ जुड़ती चली जाएँगी और हम जानेंगे गीतों के पीछे की कहानी। तो अगली बार फिर एक नए गीत के साथ मुलाकात होगी। आपकी दोस्त भारती परिमल


गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

गीतकारी - गीत - ऐ मेरे वतन के लोगों...




गीतकारी की आज की कड़ी में जानिए गैर फिल्मी गीत - ऐ मेरे वतन के लोगों.... गीत बनने के पीछे की कहानी के बारे में। किस तरह से कवि प्रदीप ने अपने दिल में उठती देशप्रेम की लहरों को शब्दों का किनारा दिया और स्वरसाम्राज्ञी लता जी ने सुरीले स्वर में उसे अमर कर दिया।

ऐ मेरे वतन के लोगों देशभक्ति से परिपूर्ण प्रसिद्ध कवि प्रदीप द्वारा लिखा गया गीत गैर फिल्मी गीत है। जिसे उन्होंने फ़िल्मी जगत् में रहते हुए लिखा था। सन 1962 में भारत-चीन युद्ध में चीन से पराजय के बाद पूरा भारत निराशा के सागर में डूब गया था। 26 जनवरी, 1963 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने शहीद सैनिकों की याद में दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में एक विशेष श्रद्धांजलि सभा का आयोजन कराया था। इस समारोह में स्वर साम्राज्ञी लता जी को एक गीत गाना था।

कवि प्रदीप से विशेष आग्रह किया गया था कि वे इस कार्यक्रम के लिए एक शानदार गीत लिखें। प्रदीप परेशान हो उठे कि किस प्रकार एक ऐसा गीत लिखा जाए जो अमर हो जाए। हृदय में देशप्रेम की भावनाएँ हिलोंरें ले रही थी पर विचारों को शब्द का जामा पहनाना मुश्किल हो रहा था। एक शाम मुंबई के माहीम बीच पर घूमते हुए अचानक उनके हृदय में ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गीत के शब्द आ गए। मगर पास में न पेन था और न ही कागज़। तब एक अजनबी से पेन माँगा और पान की दुकान से एक सिगरेट का पैकेट ख़रीदा। पैकेट को फाड़कर तत्काल ही वे शब्द उस पर लिख डाले। तो इस तरह से हुई एक अनमोल गीत की रचना।

आलेख, स्वर एवं प्रस्तुति - भारती परिमल 

गीतकारी में आप सुनेंगे गीतों के आकार लेने की प्रक्रिया की कहानी। वे गीत जिसे हम कभी दर्द के स्वर में तो कभी खुशाी के अंदाज में गाते हैं, गुनगुनाते हैं। कुछ अनसुने तो कुछ दिल में उतरे तराने और उन तरानों से जुड़ी दिलचस्प बातों का संग्रह है गीतकारी।

गीतकारी - गीत - नदिया चले चले रे धारा...





 नदिया चले, चले रे धारा तुझको चलना होगा… इस गीत को फिल्म सफर में राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर के साथ फिल्माया गया था। कल्याणजी आनंदजी के संगीत में यह गीत तैयार हुआ था और इसे मन्ना डे ने गाया था। गीत के बोल लिखे थे – इंदिवर ने। हिंदी के सरल शब्दों से सजा ये गीत आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में अपनी जगह बनाए हुए है। भारतीय फिल्म संगीत में मांझी गीतों की अपनी खूबसूरती रही है। मन्ना डे ने मांझी गीतों को बहुत तन्मयता से गाया है। खासकर बंगाल की पृष्ठभूमि में ऐसे मांझी गीत उभर कर आए हैं। इस गीत में मांझियों की जिंदगी की कहानी है। सुबह सूरज उगने से पहले उन्हें अनंत समुद्र की धाराओं में आगे बढ़ना होता है। जिंदगी का यह सफर कहीं रुकता नहीं है। दूर सागर में नाव खेते मांझी, घर की यादें, लहरों से खेलते मांझियों को पुकार को इंदीवर ने महसूस किया और यह अप्रतिम गीत रच दिया। ऐसा गीत जिसमें गहरा जीवन दर्शन समाया हुआ है।


आलेख, स्वर एवं प्रस्तुति - भारती परिमल गीतकारी में आप सुनेंगे गीतों के आकार लेने की प्रक्रिया की कहानी। वे गीत जिसे हम कभी दर्द के स्वर में तो कभी खुशाी के अंदाज में गाते हैं, गुनगुनाते हैं। कुछ अनसुने तो कुछ दिल में उतरे तराने और उन तरानों से जुड़ी दिलचस्प बातों का संग्रह है गीतकारी।

रविवार, 29 जनवरी 2023

बाल कहानी - लड्‌डूओं की बारिश






चित्र - गूगल से साभार

उत्तराखंड के रामगढ़ गाँव में बानी रहती थी उसका घर पहाड़ की चोटी पर था. उसकी माँ स्वादिष्ट मिठाइयाँ बनाती थी. एक दिन उसकी माँ ने लड्डू बनाये और फिर उन्हें एक गोल डब्बे में अच्छी तरह से बंद करके रखा तभी लड्डुओं से भरा ये डिब्बा उनके हाथ से फिसल कर गिर गया  और लुढ़कने लगा. लुढ़कते हुये वो घर के खुले दरवाजे से बाहर की ओर चला गया. माँ लड्डुओं से भरे डिब्बे के पीछे दौड़ी. डिब्बा तो तेजी से पहाड़ी से नीचे की तरफ लुढ़कने लगा. माँ चिल्लाने लगी “अरे मेरा लड्डुओं से भरा डिब्बा लुढ़का रे, कोई उसे पकड़ो रे.”

तभी बानी के पापा आये, उन्होंने भी डिब्बा लुढ़कते देखा. माँ फिर से चिल्लाने लगी “अरे मेरा लड्डुओं से भरा डिब्बा लुढ़का रे,कोई उसे पकड़ो रे.” पापा भी डिब्बे को पकड़ने के लिए भागने लगे. तभी माँ को बेटा आता दिखाई दिया, माँ जोर से बोली “ अरे लड्डुओं से भरा डिब्बा लुढ़का रे, बेटा उसे पकड़ो रे.” ढलान होने के कारण डिब्बा पहाड़ से नीचे की तरफ तेजी से लुढ़कने लगा. भाई भी डिब्बे के पीछे भागा. अब आगे डिब्बा लुढ़क रहा था उसके पीछे माँ भाग रही थी, माँ के पीछे पापा भाग रहे थे, पापा के पीछे भाई भाग रहा था. माँ चिल्लाये जा रही थी “अरे मेरा लड्डुओं से भरा डिब्बा लुढ़का रे,कोई उसे पकड़ो रे.” डिब्बा था कि रुकने का नाम नहीं ले रहा था और इतनी तेजी से लुढ़क रहा था कि सरपट भागता हुआ घोड़ा भी पीछे रह जाए.

इतने में गावं के मुखिया दिख गए, उन्हें देखते ही माँ जोर से बोली “मुखिया जी,मुखिया जी मेरा लड्डुओं से भरा डिब्बा लुढ़का रे, कोई उसे पकड़ो रे.” मुखिया ने देखा बड़ा सा डिब्बा लुढ़क रहा है. डिब्बा के अंदर के स्वादिष्ट लड्डुओं की कल्पना करके ही उनके मुहँ में पानी आ गया और वो भी डिब्बा को रोकने के लिए दौड़ पड़े. अब आगे आगे डिब्बा उसके पीछे माँ, माँ के पीछे पापा,पापा के पीछे भाई, भाई के पीछे मुखिया जी भाग रहे थे.

माँ ने देखा सामने से बानी आ रही है. माँ ने उसे जोर से आवाज लगाई “बानी लडडुओं से भरा डब्बा लुढ़का रे,तू उसे पकड़ रे.” बानी ने देखा डिब्बा तेजी से उसकी तरफ लुढ़कता हुआ आ रहा है, वो डिब्बे को पकड़ने के लिए रोड़ के बीच में खड़ी हो गयी. तभी रास्ते में एक बड़ा पत्थर आ गया. तेजी से लुढ़कता हुआ डब्बा जोर से उस पत्थर से टकराया और ऊपर की तरफ उछला. हवा में डिब्बा खुल गया. सारे लड्डू नीचे की और गिरने लगे. पहाड़ी के नीचे की तरफ कुछ लोग खड़े थे कि अचानक उनके ऊपर लड्डुओं की बारिश होने लगी. लोगों ने झटपट सारे लड्डुओं को कैच किया, वे सभी अचंभित हो गए कि आखिर ये लड्डुओं की बारिश कैसे हो रही है तभी उन्होंने देखा कि कई सारे लोग दौड़ते हुये उन्ही की तरफ आ रहे हैं. माँ ने देखा सभी के हाथों में लड्डू है. माँ ने सभी को लड्डुओं की बारिश का कारण बताया फिर सभी ने मिल कर कैच किये हुये लड्डू मजे से खाए.