हैलो दोस्तों,
गीतकारी में बात करते हैं– फिल्मी गीतों के पीछे की कहानी के बारे में। आज का गीत है फिल्म बैजू बावरा का प्यारा सा गीत –
यह फिल्म पुराने ज़माने के शास्त्रीय गायक रहे गुजरात के बैजू के जीवन पर आधारित है इसलिए इसमें शास्त्रीय रागों का समावेश तो होना ही था। तो दोस्तों, इस तरह ये फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में शास्त्रीय रागों से सजी हुई सर्वश्रेष्ठ फिल्म कही जाती है। इस फिल्म में कुल तेरह गाने थे। हर गीत को संगीतकार नौशाद साहब ने अलग-अलग रागों से सजाया था। राग दरबारी, राग पीलू, राग भैरवी, राग मेघ आदि कई रागों से गीतों की लड़ियाँ सजी थीं। धुनों के धनी नौशाद साहब की प्यारी-प्यारी धुनों से सजे ये गीत आज इतने बरसों बाद भी जब हम सुनते हैं तो दिल झूम उठता है।
दोस्तों, अपने दौर के प्रसिद्ध निर्देशक विजय भट्ट फ़िल्म के लिए दिलीप कुमार और नर्गिस के नाम पर विचार कर रहे थे, लेकिन संगीतकार नौशाद साहब ने उन्हें समझाईश दी कि नए अभिनेता और अभिनेत्री को अवसर दिया जाना चाहिए। और फिर नवोदित कलाकार के रूप में भारतभूषण और मीना कुमारी का चयन किया गया। हालाँकि इसके पहले भी मीना जी फिल्मों में आती थी लेकिन महज़बीन नाम से बाल कलाकार के रूप में। मीनाकुमारी नाम उन्हें विजय भट्ट जी ने ही दिया। भारतभूषण और मीनाकुमारी के अभिनय से सजी ये फिल्म सन 1952 में रिलीज़ हुई थी।
दोस्तों, जब नौशाद साहब फ़िल्म बैजू बावरा के लिए गाने बना रहे थे तो उन्होने अपने पसंदीदा गायक तलत महमूद से गवाने का विचार किया था। लेकिन एक बार तलत महमूद साहब को धूम्रपान करते देखकर नौशाद जी ने अपना मन बदल लिया और रफ़ी साहब से इस फिल्म में गाने के लिए कहा। बैजू बावरा के इन गीतों ने रफ़ी साहब को फिल्मी गायन की मुख्यधारा से जोड़ दिया। इसके बाद नौशाद जी ने रफ़ी साहब को अपने निर्देशन में कई गीत गाने के अवसर दिए।
शायद आपने गौर किया हो कि फ़िल्म की एक और दिलचस्प बात यह थी कि इसके संगीतकार नौशाद, गीतकार शकील बदायूंनी और गायक मोहम्मद रफी तीनों ही मुस्लिम थे और उन्होंने मिलकर भक्तिरस से सजा हुआ भक्ति गीत मन तड़पत हरिदर्शन को आज… जैसी उत्कृष्ट रचना का सृजन किया था। यह कौमी एकता की एक बेजोड़ मिसाल है। इसी फ़िल्म के लिए नौशाद साहब ने तानसेन और बैजू के बीच प्रतियोगिता का गाना शास्त्रीय गायन के धुरंधर उस्ताद आमिर खान और पंडि़त डी.वी. पलुस्कर से गवाया। इस तरह गीतों की शास्त्रीयता को पैमाना बनाया जाए तो बैजू बावरा फिल्म को मील का पत्थर माना जा सकता है।
बात करते हैँ आज की गीतकारी के गीत – ओ दुनिया के रखवाले… की । राग दरबारी से सजे इस गीत के लिए नौशाद साहब ने रफी साहब को चुना। मोहम्मद रफी किसी भी गीत को पूरी शिद्दत से गाते थे। इस गीत के लिए उन्होंने एक-दो दिन नहीं बल्कि पूरे पंद्रह दिनों तक रियाज़ किया था। रिकॉर्डिंग के समय रफी साहब ने गीत में डूबकर तार सप्तक के उस बिंदु को छूआ था कि उनके गले से खून तक निकलने लगा था। आपको याद होगा गीत का वह अंतिम हिस्सा जब रफी साहब रखवाले शब्द को ऊँचे सुर में ले जाते हैं और गीत खत्म हो जाता है। रिकॉर्डिंग के बाद उनकी आवाज़ इस हद तक टूट गई थी कि कुछ लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि रफी साहब शायद कभी अपनी आवाज़ वापस नहीं पा सकेंगे।
लेकिन दोस्तों, ये रफी साहब थे, बचपन की गलियों से गुजरते हुए जिनके कानों में फकीरों के गीतों की स्वर लहरियाँ टकराई हों, जिन्होंने तेरह साल में जाने-माने गायक कुंदनलाल सहगल के बदले में स्टेज संभाला हो, जी हाँ, एक स्टेज शो के दौरान बिजली चले जाने पर अभिनेता और गायक सहगल जी ने गाने से मना कर दिया था तब श्रोताओं को खुश करने के लिए आनन-फानन में रफी साहब को गीत गाने के लिए कहा गया था, जिनकी आवाज़ को लोगों ने सराहा और खूब दुआएँ भी दीं। और फिर किस्मत के फरिश्ते जिस नन्हे रफी को संगीत की दुनिया का सरताज बनाने के लिए बेताब हों, ऐसे रफी साहब रागों के उतार-चढ़ाव को अपनी साँसों में बसाकर उससे मुँह कैसे मोड़ सकते थे?
ये सच है कि संगीत को अपना पूरा जीवन समर्पित कर देने वाला ये सुर साधक गले से खून निकलने के कारण कई दिनों तक गा नहीं पाया था लेकिन दोस्तों, कुछ साल बाद रफी साहब ने इस गाने को फिर से रिकॉर्ड किया और पहले से भी ऊंचे स्केल तक गाया और वो भी बिना किसी कठिनाई के।
फिल्म से जुड़ी एक और खास बात… फिल्म 'बैजू बावरा' में एक सीन था, जिसमें मीना जी नाव चलाती हैं. इस सीन को शूट करते वक्त नाव बड़ी-बड़ी लहरों की गिरफ़्त में आ गई थी और मीना जी नाव से गिर गई थीं. हादसा इतना भयानक था कि मीना जी लगभग डूब ही गई थीं, लेकिन फिल्म की टीम ने वक्त पर आकर उन्हें बचा लिया था। सन 1952 का साल सिनेमा जगत में फिल्म बैजूबावरा को समर्पित रहा। संगीतकार नौशाद साहब को उनके संगीत के लिए पहला फिल्म फेयर पुरस्कार मिला और मीना जी को भी बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्म फेयर अवार्ड मिला। इस तरह फिल्म बैजूबावरा 1952 की सर्वश्रेष्ठ संगीतमय फिल्म रही। बैजू बावरा फिल्म में गाने के बाद रफी साहब की किस्मत पलट गई और उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
दोस्तों, गीतकारी में ऐसे ही गीतों की कड़ियाँ जुड़ती चली जाएँगी और हम जानेंगे गीतों के पीछे की कहानी। तो अगली बार फिर एक नए गीत के साथ मुलाकात होगी। आपकी दोस्त भारती परिमल
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