सोमवार, 21 जून 2021

बाल कहानी - तेनालीराम और अंगूठी चोर


चित्र : गुगल से साभार

महाराजा कृष्ण देव राय एक कीमती रत्न जड़ित अंगूठी पहना करते थे। जब भी वह दरबार में उपस्थित होते तो अक्सर उनकी नज़र अपनी सुंदर अंगूठी पर जाकर टिक जाती थी। राजमहल में आने वाले मेहमानों और मंत्रीगणों से भी वह बार-बार अपनी उस अंगूठी का ज़िक्र किया करते थे।

एक बार राजा कृष्ण देव राय उदास हो कर अपने सिंहासन पर बैठे थे। तभी तेनालीराम वहाँ आ पहुंचे। उन्होने राजा की उदासी का कारण पूछा। तब राजा ने बताया कि उनकी पसंदीदा अंगूठी खो गयी है, और उन्हे पक्का शक है कि उसे उनके बारह अंग रक्षकों में से किसी एक ने चुराया है।

चूँकि राजा कृष्ण देव राय का सुरक्षा घेरा इतना चुस्त होता था की कोई चोर-उचक्का या सामान्य व्यक्ति उनके नज़दीक नहीं जा सकता था। तेनालीराम ने तुरंत महाराज से कहा कि- मैं अंगूठी चोर को बहुत जल्द पकड़ लूँगा। यह बात सुन कर राजा कृष्ण देव राय बहुत प्रसन्न हुए। उन्होने तुरंत अपने अंगरक्षकों को बुलवा लिया।

तेनालीराम बोले, “राजा की अंगूठी आप बारह अंगरक्षकों में से किसी एक ने की है। लेकिन मैं इसका पता बड़ी आसानी से लगा लूँगा। जो सच्चा है उसे डरने की कोई ज़रुरत नहीं और जो चोर है वह कठोर दण्ड भोगने के लिए तैयार हो जाए।”
तेनालीराम ने बोलना जारी रखा, “आप सब मेरे साथ आइये हम सबको काली माँ के मंदिर जाना है।”
राजा बोले, ” ये कर रहे हो तेनालीराम हमें चोर का पता लगाना है मंदिर के दर्शन नहीं कराने हैं!”
महाराज, आप धैर्य रखिये जल्द ही चोर का पता चल जाएगा।”, तेनालीराम ने राजा को सब्र रखने को कहा।

मंदिर पहुँच कर तेनालीराम पुजारी के पास गए और उन्हें कुछ निर्देश दिए। इसके बाद उन्होंने अंगरक्षकों से कहा, ” आप सबको बारी-बारी से मंदिर में जा कर माँ काली की मूर्ति के पैर छूने हैं और फ़ौरन बाहर निकल आना है। ऐसा करने से माँ काली आज रात स्वप्न में मुझे उस चोर का नाम बता देंगी।

अब सारे अंगरक्षक बारी-बारी से मंदिर में जा कर माता के पैर छूने लगे। जैसे ही कोई अंगरक्षक पैर छू कर बाहर निकलता तेनालीराम उसका हाथ सूंघते आर एक कतार में खड़ा कर देते। कुछ ही देर में सभी अंगरक्षक एक कतार में खड़े हो गए।
महाराज बोले, “चोर का पता तो कल सुबह लगेगा, तब तक इनका क्या किया जाए?”
नहीं महाराज, चोर का पता तो ला चुका है। सातवें स्थान पर खड़ा अंगरक्षक ही चोर है।
ऐसा सुनते ही वह अंगरक्षक भागने लगा, पर वहां मौजूद सिपाहियों ने उसे धर दबोचा, और कारागार में डाल दिया. राजा और बाकी सभी लोग आश्चर्यचकित थे कि तेनालीराम ने बिना स्वप्न देखे कैसे पता कर लिया कि चोर वही है।

तेनालीराम सबकी जिज्ञासा शांत करते हुए बोले,”मैंने पुजारी जी से कह कर काली माँ के पैरों पर तेज सुगन्धित इत्र छिड़कवा दिया था। जिस कारण जिसने भी माँ के पैर छुए उसके हाथ में वही सुगन्ध आ गयी। लेकिन जब मैंने सातवें अंगरक्षक के हाथ महके तो उनमे कोई खुशबु नहीं थी… उसने पकड़े जाने के डर से माँ काली की मूर्ति के पैर छूए ही नहीं। इसलिए यह साबित हो गया की उसी के मन में पाप था और वही चोर है।”
राजा कृष्ण देव राय एक बार फिर तेनालीराम की बुद्धिमत्ता के कायल हो गए। और उन्हें स्वर्ण मुद्राओं से सम्मानित किया।

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कविता - बाबुल की गलियाँ


चित्र - गुगल से साभार

बाबुल तेरी गलियाँ याद आती है
छूटी सखी-सहेलियाँ याद आती है
बहती पवन लाई है
सौरभ का संदेशा
मुझे अधखिली कलियाँ याद आती है।
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती है


गरमी के वो दिन थे
पूरी छत बिस्तर बन जाती थी
बादल में लुकते-छिपते तारे थे
किसी भटके परींदे ने पंख पसारे थे
चंदा ने चाँदनी बिखराई थी
हवाओं ने लोरी गुनगुनाई थी
ऐसे में पास मेरे
दादी का दुलार और
बाबा का प्यार था
सपनों का संसार था और
माँ की बाँहों का हार था
भाइ-बहनों की तकरार के बीच
अपनी अठखेलियाँ याद आती है
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती है।


गुलाबी जाड़ों में ही
माँ को चिंता सताती थी
हाथ-पैर में हमारे
तेल की परतें जमती जाती थी
रजाई-कंबल से जुडता था नाता
काॅपी-किताबांे में झुकता था माथा
टिमटिम लालटेन की रोशनी में
अक्षरों का ज्ञान लेते थे
पढ़ाई से अधिक मस्ती में
हम तो हिलोरें लेते थे।
देर रात जाड़ों में लौटते बाबा की
साइकिल की घंटियाँ याद आती है
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती है।


बारिश की बूँदें गिरते ही
मन मयूर बन जाता था
तिनक-धिन-ताना
वो नाचता जाता था
कागज की बनती थी नाव
बिना चप्पल के ही दौड़ते थे पाँव
पोखर और नाले को नदी बनाकर
नाव बहाते जाते थे
हम छपाक-छई भीगते जाते थे
छींको का जब दौर चलता था
बाबा की फटकार
माँ का दुलार साथ-साथ चलता था
आज यादों की पगडंडियों पर
वो बूँदों की लड़ियाँ याद आती है
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती है।


कहने को तो छूटा तुम्हारा साथ
यादों ने अब भी थामा मेरा हाथ
कभी धूमिल न होती यादें
हरदम करती ये खुद से फरियादें
भूल गई जो बाबुल की गलियाँ
तो खिलेगी न कभी कोई कलियाँ
पल-पल बीती बतियाँ याद आती है
बाबुल तेरी गलियाँ याद आती है।


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शुक्रवार, 18 जून 2021

कविता - मिर्च का मजा

कवि - रामधारी सिंह दिनकर










चित्र : गुगल से साभार

एक काबुली वाले की कहते हैं लोग कहानी,
लाल मिर्च को देख गया भर उसके मुँह में पानी।

सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह जरूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा।

एक चवन्नी फेंक और झोली अपनी फैलाकर,
कुंजड़िन से बोला बेचारा ज्यों-त्यों कुछ समझाकर!

‘‘लाल-लाल पतली छीमी हो चीज अगर खाने की,
तो हमको दो तोल छीमियाँ फकत चार आने की।’’

‘‘हाँ, यह तो सब खाते हैं’’-कुँजड़िन बेचारी बोली,
और सेर भर लाल मिर्च से भर दी उसकी झोली!

मगन हुआ काबुली, फली का सौदा सस्ता पाके,
लगा चबाने मिर्च बैठकर नदी-किनारे जाके!

मगर, मिर्च ने तुरत जीभ पर अपना जोर दिखाया,
मुँह सारा जल उठा और आँखों में पानी आया।

पर, काबुल का मर्द लाल छीमी से क्यों मुँह मोड़े?
खर्च हुआ जिस पर उसको क्यों बिना सधाए छोड़े?

आँख पोंछते, दाँत पीसते, रोते औ रिसियाते,
वह खाता ही रहा मिर्च की छीमी को सिसियाते!

इतने में आ गया उधर से कोई एक सिपाही,
बोला, ‘‘बेवकूफ! क्या खाकर यों कर रहा तबाही?’’

कहा काबुली ने-‘‘मैं हूँ आदमी न ऐसा-वैसा!
जा तू अपनी राह सिपाही, मैं खाता हूँ पैसा।’’

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शनिवार, 12 जून 2021

मैं एक बूँद हूँ...



मैं एक बूँद हूँ....

मैं एक बूँद हूँ। मेरी असलियत से अनजान आप मुझे पानी की एक बूँद कह सकते हैं या फिर ओस की एक बूँद भी। नदी, झरनें, झील, सागर की लहरों का एक छोटा रूप भी। लेकिन मेरी सच्चाई यह है कि मैं पलकों की सीप में कैद एक अनमोल मोती के रूप में सहेज कर रखी हुई आँसू की एक बूँद हूँ।

इस सृष्टि के सृजनकर्ता ने जब शिशु को धरती पर उतारा तो उसकी आँखों में मुझे पनाह दी। ममत्व की पहचान बनकर मैं बसी थी माँ की पलकों में और धीरे से उतरी थी उसके गालों पर। गालों पर थिरकती हुई बहती चली गई और फिर भिगो दिया था माँ का आँचल। उस समय मैं खुशियों की सौगात बनकर माँ की आँखों से बरसी थी। दुआओं का सागर उमड़ा था और उसकी हर लहर की गूँज में शिशु का क्रंदन अनसुना हो गया था।

रात की खामोशी में जब चाँद बादलों की ओट में लुका-छिपी खेलते तारों की टीम-टीम के साथ उनकी गुनगुन सुनता है, अपनी दूधिया चाँदनी बिखेरता है, तो उस एकांत में मैं किसी विरहिणी के आँखों के उजाड़ जंगल से आजाद होती हूँ। उसके गालों के मखमली मैदान से होकर गुजरती हूँ। होठों की पंखुड़ी पर कुछ पल ठहरती हूँ और अपने खारेपन को भूल जाती हूँ। तब बीते दिनों की यादों में खोई उस विरहिणी की गुलाबी पंखुडिय़ाँ भी कुछ पल के लिए फैलकर मेरी जलन का अहसास भूल जाती है। मैं चाहूँ तो उसे अपने खारेपन में डूबो दूँ और मैं चाहूँ तो उसके अधरों पर मुस्कान की कलियों को नृत्य करने पर विवश कर दूँ।

एक नन्हीं-सी बूँद... मुझमें ही समाया है सारा संसार। कभी मैं खुशी के क्षणों में आँखों से रिश्ता जोड़ती हूँ, तो कभी गम के पलों में। बरसना तो मेरी नीयति है। मैं बरसी हूँ तो जीवन बहता है। जीवन का बहना जरूरी है। मैं ठहरी हूँ, तो जीवन ठहरा है। जीवन का हर पल दूजे पलों से अनजाना होकर किसी कोने में दुबक गया है। इसलिए इस ठहराव को रोकने के लिए मेरा बरसना जरूरी है।

मुझमें जो तपन है, वो रेगिस्तान की रेत में नहीं, पिघलती मोम की बूँदों में नहीं, सूरज की किरणों में नहीं और आग की चिंगारी में भी नहीं। मुझमें जो ठंडक है, वो चाँद की चाँदनी में नहीं, सुबह-सुबह मखमली घास पर बिखरी ओस की बूँदों में नहीं, पूरवा बयारों में नहीं और हिम शिखर से झरते हिम बिंदुओं में भी नहीं। मेरी तपन, मेरी ठंडक अहसासों की एक बहती धारा है, जो अपनी पहचान खुद बनाती है।

मैं बूँद हूँ। कभी पलकों पर मेरा बसेरा तो कभी अधरों पर मेरा आशियाना। मुझे तो हर हाल में, हर अंदाज में जीना है। मैं जी रही हूँ। मैं जीती रहूँगी। जब तक मैं इस धरती पर हूँ, जिंदगी गुनगुनाएगी, मुसकराएगी, रिमझिम फुहारों-सी भीगेगी और अपनी एक कहानी कह जाएगी। कहानियाँ बनती रहे... जिंदगियाँ गुनगुनाती रहे...।

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गुरुवार, 10 जून 2021

कविता - आदमीनामा - नज़ीर अकबराबादी




चित्र : गुगल से साभार

दुनियां में बादशाह है सो है वह भी आदमी।

और मुफ़्लिसो गदा है सो है वह भी आदमी॥

जरदार बेनवा है, सो है वह भी आदमी।

नैंमत जो खा रहा है, सो है वह भी आदमी॥

टुकड़े चबा रहा है, सो है वह भी आदमी॥1॥

नज़ीर अकबराबादी की रचना आदमीनामा अपने ज़माने की मशहूर रचना तो है ही लेकिन आज के हालात में भी ये अपनी सच्चाई को बयां करती है। 

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बुधवार, 9 जून 2021

कविता - आँसू - जयशंकर प्रसाद


सुप्रसिद्ध छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद की अमर कृति - आँसू 
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कविता - जो बीत गई सो बात गई










चित्र : गुगल से साभार

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई


जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई


जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई


मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई
जो बीत गई सो बात गई।

दोस्तों, हिंदी साहित्य जगत के प्रसिद्ध रचनाकार श्री हरिवंशराय बच्चन जी की कविता का आनंद लीजिए, इस ऑडियो की मदद से...


अमरूद का पेड़


चित्र : गुगल से साभार

दोस्तों, मेरी यादों में बसा अमरूद का पेड़.... मेरे बचपन की कहानी कहता है। मुझे फिर से बचपन की यादों में बसेरा करने को विवश करता है। क्या खास है, उस पेड़ में? क्यों इतना लगाव है अमरूद के पेड़ से, जो आज भी उसे भूल पाना मुश्किल हो रहा है? 
इन सवालों के जवाब मिलेंगे, इस ऑडयो के माध्यम से....

राधा का दर्द...


चित्र : गुगल से साभार

दोस्तो, राधा और कृष्ण के अलौकिक प्रेम के बारे में सभी जानते हैं। 
इसी प्रेम से जुड़ा एक प्रसंग यहाँ पर प्रस्तुत है। 
इसका आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...

कविता - ज़िंदगी...



थोड़ी-सी तू अस्त-व्यस्त है,

फिर भी

जिंदगी तू जबर्दस्त है।

तेरी बाँहों में खुशियाँ अलमस्त हैं

और गम का भी उदय-अस्त है,

जिंदगी तू जबर्दस्त है।

कभी लहरों-सी इठलाती मदमस्त है

कभी वीराने-सी खामोश वक्त-बेवक्त है

जिंदगी तू जबर्दस्त है।

कभी डूबती-उतराती,

कभी झूमती-बलखाती,

तू कमबख्त है

जिंदगी तू जबर्दस्त है।

तुझमें है खिलते चमन कभी,

तो कभी उजड़े दरख्त है,

जिंदगी तू जबर्दस्त है।

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कविता - हवाएँ


चित्र : गुगल से साभार

हवाएँ होती हैं,

बँजारों की तरह।

नहीं ठहरतीं,

किसी एक जगह।

चलती रहती हैं,

यायावर की तरह।

बहती रहती हैं,

नदी की तरह।

अपने साथ

लिए होती हैं,

कई तूफान,

कई आँधियाँ,

यादों की तरह।

भागती रहती हैं,

सैलाब की तरह।

जागती रहती हैं,

अलाव की तरह।

उड़ती रहती हैं,

पंछियों की तरह।

कुलाँचें भरती हैं,

हिरनी की तरह।

उछलती रहती हैं,

लहरों की तरह।

हवाएँ होती हैं,

बँजारों की तरह।

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सोमवार, 7 जून 2021

कविता - ऐ मुसाफिर...



चित्र : गुगल से साभार

ऐ मुसाफिर...

अपने गम को

गीत बनाकर गा लेना

अँधेरे हैं बहुत राहों में

मुस्कानों की शमा जला लेना।

ऊँचे-नीचे रास्ते होंगे

कँटीली झाड़ियाँ होंगी

पैर-पीठ लहुलूहान होंगे

मुश्किलों की आँधियाँ होंगी

तुम जोश‘औ‘जुनून

साँसों में भर लेना

मुस्कानों की शमा जला लेना।

कभी मौसम साथ न देगा

तो कभी साया भी साथ न होगा

कभी इरादे टूट जाएँगे

तो कभी वादे रूठ जाएँगे

कभी अपने छूट जाएँगे

तो कभी सपने लूट जाएँगे

आँसुओं का खारापन

अपने भीतर समा लेना

तुम उम्मीदों से अपना

खाली दामन भर लेना

मुस्कानों की शमा जला लेना।

 ऐ मुसाफिर...

अपने गम को

गीत बनाकर गा लेना।

यादें...

 


चित्र : गुगल से साभार

लहरों की तरह

दिल से टकराती रहीं यादें,

तूफान ही उठाती रहीं यादें।

जब तक दूसरों के लिए जिएँ,

मुस्कराती रहीं यादें।

खुद के लिए जीने की कोशिश में,

हर पल रूलाती रहीं यादें।

कभी भरी महफिल में तनहा थे,

और आज तन्हाई में,

महफिल की हर सदा,

गुनगुनाती रहीं यादें।

परायों को अपना

समझने की भूल की थी,

अपनों में परायेपन का दर्द,

सारी उम्र परोसतीं रहीं यादें।

हर मोड़ पर तड़पाती तो थी ही,

अब साथ मेरे,

पल-पल सिसकती रहीं यादें।

लहरों की तरह

दिल से टकराती रहीं यादें।

कहानी - हींगवाला

लेखिका  - सुभद्रा कुमारी चाैहान





हिंदी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम साहित्य जगत में आलोकित है। उनकी कहानी हींगवाला का आनंद लीजिए, इस ऑडियो की मदद से...






चित्र : गुगल से साभार

रविवार, 6 जून 2021

अकबर-बीरबल 2


चित्र : गुगल से साभार

दोस्तों, अकबर -बीरबल के किस्से तो सारी दुनिया में मशहूर हैं। जहाँ अकबर अपने मंत्री बीरबल को परेशान करने का कोई अवसर नहीं चूकते थे, तो दूसरी ओर बीरबल उनकी दी गई चुनौती को चुटकी बजाते ही हल कर लेते थे। और कभी-कभी तो ऐसे हल करते थे कि खुद बादशाह अकबर भी उसमें उलझकर रह जाते थे ।
 इन्हीं किस्सों में से एक किस्सा - अकबर-बीरबल और चार मूर्ख का आनंद लीजिए, इस ऑडियो के माध्यम से...


बाल रामकथा - भाग 12

अध्याय - 12 राम का राज्याभिषेक



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बाल रामकथा - भाग 11

अध्याय - 11 लंका विजय



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बाल रामकथा - भाग 10

अध्याय - 10 लंका में हनुमान



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बाल रामकथा - भाग 9

अध्याय - 9 राम और सुग्रीव



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बाल रामकथा - भाग 8

अध्याय - 8 सीता की खोज


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बाल रामकथा - भाग 7

अध्याय - 7 सोने का हिरण



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बाल रामकथा - भाग 6

अध्याय - 6 दंडकवन में दस वर्ष 



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बाल रामकथा - भाग 5

अध्याय - 5 चित्रकूट में भरत


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बाल रामकथा - भाग 4

अध्याय 4 राम का वनगमन



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बाल रामकथा - भाग 3

अध्याय - 3 दो वरदान


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बाल रामकथा - भाग 2

अध्याय - 2 जंगल और जनकपुर



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बाल रामकथा - भाग 1

अध्याय 1 अवधपुरी में राम



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बंदरिया...



रात सपने में

बंदर ने बंदरिया को मारा चाँटा

सुबह-सुबह ही उठकर

बंदरिया ने बंदर को फिर डाँटा

समझ नहीं कुछ वो पाया

दिन की ऐसी शुरूआत से

वो झल्लाया

बेमौसम बारिश-सी

क्यों उस पर बरसी बंदरिया

अब नहीं लाकर दूँगा

उसको रंगबिरंगी चुनरिया

जाता हूँ मेले, मैं तो अकेले

बैठो घर में, खाओ सड़े केले

सारा दिन मौज मारूँगा

घूम-फिरकर देर रात आऊँगा

बंदरिया लगाती रही पुकार

पर बंदर जा पहुँचा

सड़क के उस पार

दिन भर अकेले बैठे-बैठे

बंदरिया को अपनी गलती का भान हुआ

सपने को सच समझने का

उसे झूठा मान हुआ

अब करूँगी ऐसी बात

बस बंदरजी जाओ मेरे पास

देर रात बंदर आया

बंदरिया ने सॉरी का

फरमान थमाया

दोनों कान पकड़

उठक-बैठक कर

उसे मनाया

बंदर को भी हँसी गई

उसकी लाई सतरंगी चुनरिया

बंदरिया पर खुशियाँ बन कर छा गई।


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