रविवार, 6 जून 2021

बंदरिया...



रात सपने में

बंदर ने बंदरिया को मारा चाँटा

सुबह-सुबह ही उठकर

बंदरिया ने बंदर को फिर डाँटा

समझ नहीं कुछ वो पाया

दिन की ऐसी शुरूआत से

वो झल्लाया

बेमौसम बारिश-सी

क्यों उस पर बरसी बंदरिया

अब नहीं लाकर दूँगा

उसको रंगबिरंगी चुनरिया

जाता हूँ मेले, मैं तो अकेले

बैठो घर में, खाओ सड़े केले

सारा दिन मौज मारूँगा

घूम-फिरकर देर रात आऊँगा

बंदरिया लगाती रही पुकार

पर बंदर जा पहुँचा

सड़क के उस पार

दिन भर अकेले बैठे-बैठे

बंदरिया को अपनी गलती का भान हुआ

सपने को सच समझने का

उसे झूठा मान हुआ

अब करूँगी ऐसी बात

बस बंदरजी जाओ मेरे पास

देर रात बंदर आया

बंदरिया ने सॉरी का

फरमान थमाया

दोनों कान पकड़

उठक-बैठक कर

उसे मनाया

बंदर को भी हँसी गई

उसकी लाई सतरंगी चुनरिया

बंदरिया पर खुशियाँ बन कर छा गई।


इस कविता का आनंद लीजिए, ऑडियो की सहायता से...


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