रात सपने में
बंदर ने बंदरिया को मारा चाँटा
सुबह-सुबह ही उठकर
बंदरिया ने बंदर को फिर डाँटा
समझ नहीं कुछ वो पाया
दिन की ऐसी शुरूआत से
वो झल्लाया
बेमौसम बारिश-सी
क्यों उस पर बरसी बंदरिया
अब नहीं लाकर दूँगा
उसको रंगबिरंगी चुनरिया
जाता हूँ मेले, मैं तो अकेले
बैठो घर में, खाओ सड़े केले
सारा दिन मौज मारूँगा
घूम-फिरकर देर रात आऊँगा
बंदरिया लगाती रही पुकार
पर बंदर जा पहुँचा
सड़क के उस पार
दिन भर अकेले बैठे-बैठे
बंदरिया को अपनी गलती का भान हुआ
सपने को सच समझने का
उसे झूठा मान हुआ
अब न करूँगी ऐसी बात
बस बंदरजी आ जाओ मेरे पास
देर रात बंदर आया
बंदरिया ने सॉरी का
फरमान थमाया
दोनों कान पकड़
उठक-बैठक कर
उसे मनाया
बंदर को भी हँसी आ गई
उसकी लाई सतरंगी चुनरिया
बंदरिया पर खुशियाँ बन कर छा गई।
इस कविता का आनंद लीजिए, ऑडियो की सहायता से...
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