बुधवार, 18 मई 2022

स्लोगन की दुनिया...


चित्र : गूगल से साभार


स्लोगन की दुनिया ही अपने आपमें एक अनूठी दुनिया होती है। वाक्य या शब्दों का ऐसा समूह जो हमें आकर्षित तो करता ही है साथ ही हमारे जीवन की दिशा भी बदल देता है।  ये हमारे दिल को छूकर हमें जीवन में कुछ नया करने की प्रेरणा देते हैं। कभी ये हँसाते हैं, गुदगुदाते हैं तो कभी जीवन को सकारात्मकता से भर देते हैं। आइए जानते हैं अलग-अलग स्लोगन के बारे में... ऑडियो के माध्यम से...



सोमवार, 16 मई 2022

बाल कहानी - चोर पकड़ा गया




चित्र : गूगल से साभार


बाल कहानी के पिटारे से निकली है कहानी - चोर पकड़ा गया। जानिए कि किस तरह से नन्हे भालू ने अपनी मम्मी के गहनों के चोर का पता लगाया और फिर पापा ने उस चोर को पकड़ा। जंगल के जीवों की बात ही निराली होती है। वे भी यदि हम इंसानों की तरह बोलना सीख जाए तो उनकी बातें सुनकर तो मजा ही आ जाए। कोई बात नहीं, बोल नहीं सकते तो क्या हुआ? हम अपनी कल्पनाओं से तो उन्हें बोलने के लिए विवश कर ही सकते हैं। बाल कहानियों में यही सजीवता देखने को मिलती है। तो आनंद लीजिए इस बाल कहानी का, ऑडियो के माध्यम से...





रविवार, 15 मई 2022

बाल कहानी - श्रेया की समझदारी

चित्र : गूगल से साभार

बाल कहानियों के पिटारे में से आज निकली है एक बाल कहानी - श्रेया की समझदारी। नन्ही श्रेया ने अपने भोलेपन में एक समझदारी का काम कर दिया जिससे घर में मुसीबत आते-आते बच गई। उसने किस तरह की समझदारी दिखाई? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...



बुधवार, 11 मई 2022

प्रेरक प्रसंग - ईश्वर की व्यथा

 


चित्र : गूगल से साभार


मनुष्य तो अपनी व्यथा हर रोज ईश्वर से कहता है पर आज ईश्वर अपनी व्यथा लेकर मनुष्य के पास आए हैं। वे क्या चाहते हैं? यह जानने के लिए लीजिए ऑडियो की मदद...


मंगलवार, 10 मई 2022

कविता - नदारद




चित्र : गूगल से साभार


आया दौर फ्लैट कल्चर का,
देहरी, आंगन, धूप नदारद।
हर छत पर पानी की टंकी,
ताल, तलैया, कूप नदारद।।
लाज-शरम चंपत आंखों से,
घूँघट वाला रूप नदारद।
पैकिंग वाले चावल, दालें,
डलिया,चलनी, सूप नदारद।।


बढ़ीं गाड़ियां, जगह कम पड़ी,
सड़कों के फुटपाथ नदारद।
लोग हुए मतलबपरस्त सब,
मदद करें वे हाथ नदारद।।
मोबाइल पर चैटिंग चालू,
यार-दोस्त का साथ नदारद।
बाथरूम, शौचालय घर में,
कुआं, पोखरा ताल नदारद।।

हरियाली का दर्शन दुर्लभ,
कोयलिया की कूक नदारद।
घर-घर जले गैस के चूल्हे,
चिमनी वाली फूंक नदारद।।
मिक्सी, लोहे की अलमारी,
सिलबट्टा, संदूक नदारद।
मोबाइल सबके हाथों में,
विरह, मिलन की हूक नदारद।।

बाग-बगीचे खेत बन गए,
जामुन, बरगद, रेड़ नदारद।
सेब, संतरा, चीकू बिकते
गूलर, पाकड़ पेड़ नदारद।।
ट्रैक्टर से हो रही जुताई,
जोत-जात में मेड़ नदारद।
रेडीमेड बिक रहा ब्लैंकेट,
पालों के घर भेड़ नदारद।।

लोग बढ़ गए, बढ़ा अतिक्रमण,
जुगनू, जंगल, झाड़ नदारद।
कमरे बिजली से रोशन हैं,
ताखा, दियना, टांड़ नदारद।।
चावल पकने लगा कुकर में,
बटलोई का मांड़ नदारद।
कौन चबाए चना-चबेना,
भड़भूजे का भाड़ नदारद।।

पक्के ईंटों वाले घर हैं,
छप्पर और खपरैल नदारद।
ट्रैक्टर से हो रही जुताई,
दरवाजे से बैल नदारद।।
बिछे खड़ंजे गली-गली में,
धूल धूसरित गैल नदारद।
चारे में भी मिला केमिकल,
गोबर से गुबरैल नदारद।।

शर्ट-पैंट का फैशन आया,
धोती और लंगोट नदारद।
खुले-खुले परिधान आ गए,
बंद गले का कोट नदारद।।
आँचल और दुपट्टे गायब,
घूंघट वाली ओट नदारद।
महंगाई का वह आलम है,
एक-पांच के नोट नदारद।।

लोकतंत्र अब भीड़तंत्र है,
जनता की पहचान नदारद।
कुर्सी पाना राजनीति है,
नेता से ईमान नदारद।।
गूगल विद्यादान कर रहा,
गुरुओ का सम्मान नदारद।

धन्यवाद वॉट्सअप के उस अनाम मित्र का, जिसने मुझे यह प्यारी कविता भेजी है। इस कविता का आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...


सोमवार, 9 मई 2022

लघुकथा - जमापूंजी



चित्र : गूगल से साभार

एक दिन एक राजा ने अपने तीन मन्त्रियो को दरबार में बुलाया, और तीनो को आदेश दिया के एक-एक थैला ले कर बगीचे में जाएं और वहां से अच्छे अच्छे फल जमा करें .वो तीनो अलग अलग बाग़ में प्रविष्ट हो गए।पहले मन्त्री ने कोशिश की के राजा के लिए उसकी पसंद के अच्छे-अच्छे और मज़ेदार फल जमा किए जाएँ।उस ने काफी मेहनत के बाद बढ़िया और ताज़ा फलों से थैला भर लिया।दूसरे मन्त्री ने सोचा राजा हर फल का परीक्षण तो करेगा नहीं , इस लिए उसने जल्दी जल्दी थैला भरने में ताज़ा, कच्चे, गले सड़े फल भी थैले में भर लिए।तीसरे मन्त्री ने सोचा राजा की नज़र तो सिर्फ भरे हुवे थैले की तरफ होगी वो खोल कर देखेगा भी नहीं कि इसमें क्या है? उसने समय बचाने के लिए जल्दी जल्दी थैले में घास, और पत्ते भर लिए और वक़्त बचाया।


दूसरे दिन राजा ने तीनों मन्त्रियो को उनके थैलों समेत दरबार में बुलाया और उनके थैले खोल कर भी नही देखे और आदेश दिया कि, तीनों को उनके थैलों समेत दूर स्थान के एक जेल में ३ महीने क़ैद कर दिया जाए। अब जेल में उनके पास खाने पीने को कुछ भी नहीं था सिवाए उन थैलों के। तो जिस मन्त्री ने अच्छे-अच्छे फल जमा किये वो तो मज़े से खाता रहा और 3 महीने गुज़र भी गए।फिर दूसरा मन्त्री जिसने ताज़ा, कच्चे गले सड़े फल जमा किये थे, वह कुछ दिन तो ताज़ा फल खाता रहा फिर उसे ख़राब फल खाने पड़े, जिससे वो बीमार हो गया और बहुत तकलीफ उठानी पड़ी।और तीसरा मन्त्री जिसने थैले में सिर्फ घास और पत्ते जमा किये थे वो कुछ ही दिनों में भूख से मर गया।


अब आप अपने आप से पूछिए कि आप क्या जमा कर रहे हो? आप इस समय जीवन के बाग़ में हैं, जहाँ चाहें तो अच्छे कर्म जमा करें, चाहें तो बुरे कर्म।मगर याद रहे जो आप जमा करेंगे वही आपको आखरी समय काम आयेगा क्योंकि दुनिया क़ा राजा आपको चारों ओर से देख रहा है।


इस लघुकथा का आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...


रविवार, 8 मई 2022

कविता - मजे में हूँ...



चित्र : गूगल से साभार


मजे में हूँ


घुटने बोलते हैं, लड़खड़ाता हूँ,
छत पर रेलिंग पकड़कर जाता हूँ।
दाँत कुछ ढीले हो चले
रोटी डुबा कर खाता हूँ।
वो आते नहीं बस फोन पर पूछते हैं कि कैसा हूँ ?
बड़ी सादगी से कहता हूँ
मजे में हूँ...


दिखता है सब पर वैसा नहीं दिखता,
लिखता हूँ सब पर वैसा नहीं लिखता।
आसमान और आँखों के बीच अब कुछ बादल सा है दिखता,
पढ़ता हूँ अखबार पर कुछ याद नहीं रहता,
डॉक्टर के सिवाय किसी और से
कुछ नहीं कहता।
पूछते हैं लोग तबियत
बड़ी सादगी से कहता हूँ
मजे में हूँ...


कभी दो रंगी मोजे जूतों में हो जाते हैं,
कभी बढ़े हुऐ नाखून यकायक चश्मे से किसी महफिल में दिखाई देते हैं।
फिर अचकचा कर उनको छुपाता हूँ,
कभी बीस व तीस का अन्तर
सुनाई नहीं देता,
बहुत से काम अब अंदाजे से कर लेता हूँ।
कोई कभी पूछ लेता है
कहाँ हूँ कैसा हूँ,
हँस कर कह देता हूँ
मजे में हूँ...


बीत गया है लंबा सफर, 
पर इंतज़ार बाकी है,
हासिल कर ली हैं मंज़िलें
पर प्यास अभी बाकी है!
ख़ुद तो दौड़ नहीं सकता 
अब अपनों में बाज़ी लगाता हूँ,
ठहर गयीं हैं यादें 
पुरानी बातें सुनाता हूँ।
क्या मज़ा है इस जिंदगी का
किसी का जवाब आना बाकी है,
ये दिल पहले सा ही धड़कता है
बूढ़ा तो हो चुका, पर मानता नहीं,
शरीर का रग रग दुखता है पर, 
आँखें शरारत कर ही जाती हैं।
इसलिये बार बार कहता हूँ-
मजे में हूँ, मजे में हूँ...


धन्यवाद उस अनाम वॉटसअप मित्र का... जिसने मुझे ये संदेश भेजा। इन पंक्तियों का आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...



पुत्र का संदेश



चित्र : गूगल से साभार


वॉट्सअप के माध्यम से प्राप्त एक संदेश...
पुत्र विदेश में जॉब करता है। 
उसके माँ बाप छोटे शहर में रहते हैं।
अकेले बुजुर्ग हैं, बीमार हैं, लाचार हैं।
जहां पुत्र की आवश्यकता है। वहां पैसा भी काम नहीं आता। 
 पुत्र वापस आने की बजाय पिता जी को एक पत्र लिखता है। 
                     
पुत्र का पत्र पिता के नाम
पूज्य पिताजी!
आपके आशीर्वाद से आपकी भावनाओं इच्छाओं के अनुरूप मैं, अमेरिका में व्यस्त हूं।
यहाँ पैसा, बंगला, साधन सुविधा सब हैं,
नहीं है तो केवलसमय।
आपसे मिलने का बहुत मन करता है। चाहता हूं, 
आपके पास बैठकर बातें करता रहूं हूँ।
आपके दुख दर्द को बांटना चाहता हूँ,
परन्तु क्षेत्र की दूरी,
बच्चों के अध्ययन की मजबूरी,
कार्यालय का काम करना भी जरूरी,
क्या करूँ? कैसे बताऊँ ?
मैं चाह कर भी स्वर्ग जैसी जन्म भूमि
और देव तुल्य माँ बाप के पास आ नहीं सकता।
पिताजी।!
मेरे पास अनेक सन्देश आते हैं -
"माता-पिता जीवन भर  अनेक कष्ट सह कर भी बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाते हैं,
और बच्चे मां-बाप को छोड़ विदेश चले जाते हैं,
पुत्र, संवेदनहीन होकर माता-पिता के किसी काम नहीं आते हैं। "
पर पिताजी,
मैं बचपन मे कहाँ जानता था इंजीनियरिंग क्या होती है?
मुझे क्या पता था कि पैसे की कीमत क्या होती है?
मुझे कहाँ पता था कि अमेरिका कहाँ है ?
, योग्यता नाम पैसा सुविधा और अमेरिका तो बस,
आपकी गोद में बैठ कर ही समझा था न?
आपने ही मंदिर न भेजकर कॉन्वेंट स्कूल भेजा,
खेल के मैदान में नहीं कोचिंग भेजा,
कभी आस पडोस के बच्चों से दोस्ती नहीं करने दी
आपने अपने मन में दबी इच्छाओं को पूरा करने के लिए दिन रात समझाया की
इंजीनियरिंग /पैसा /पद/ रिश्तेदारों में नाम की वैल्यू क्या होती है,
माँ ने भी दूध पिलाते हुये रोज दोहराया की ,
मेरा राजा बेटा बड़ा आदमी बनेगा खुब पैसा कमाऐगा,
गाड़ी बंगला होगा हवा में उड़ेगा कहा था।
मेरी लौकिक उन्नति के लिए,
जाने कितने मंदिरों में घी के दीपक जलाये थे।।
मेरे पूज्य पिताजी!
मैं बस आपसे इतना पूछना चाहता हूं कि,
संवेदना शून्य मेरा जीवन आपका ही बनाया हुआ है।
 
मैं आपकी सेवा नहीं कर पा रहा,
होते हुऐ भी आपको पोते पोती से खेलने का सुख नहीं दे पा रहा
मैं चाहकर भी पुत्र धर्म नहीं निभा पा रहा,
मैं हजारों किलोमीटर दूर बंगले गाडी और जीवन की हर सुख सुविधाओं को भोग रहा हूं
आप, उसी पुराने मकान में वही पुराना अभावग्रस्त जीवन जी रहे हैं
क्या इन परिस्थितियों का सारा दोष सिर्फ़ मेरा है?
आपका पुत्र,
अब यह फैंसला हर माँ बाप को करना है कि अपना पेट काट काट कर, तकलीफ सह कर, अपने सब शौक समाप्त करके ,बच्चों के सुंदर भविष्य के सपने क्या इन्हीं दिनों के लिये देखते हैं?
 शिक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण है  पर साथ में नैतिक मूल्यों की शिक्षा, राष्ट्र प्रेम भी उतना ही जरूरी है, क्या वास्तव में हम कोई गलती तो नहीं कर रहे हैं.....?????

धन्यवाद उस अनाम मित्र का जिसने यह संदेश मुझ तक पहुँचाया।  इस संदेश का आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...




कहानी - थोड़ा-सा पागलपन..












लेखिका - डॉ. शरद सिंह



चित्र : गूगल से साभार


लेखिका डॉ. शरद सिंह वरिष्ठ कथाकार हैं। थोड़ा-सा पागलपन...  कहानी के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं को जगाने का और प्रकृति से रिश्ता जोड़ने का अनूठा प्रयास किया गया है। कहानी का आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...


कहानी - गिन्नी आंटी



लेखिका - प्रेमलता यदु



चित्र : गूगल से साभार

लेखिका - प्रेमलता यदु की कहानी गिन्नी आंटी संवेदनाओं से भरी एक प्यारी कहानी है। जिसमें रिटायरमेंट के बाद की जिंदगी को जीने की कला सिखाई गई है। जीवन कभी ठहरता नहीं है, बस कुछ पल रूक कर फिर चल पड़ता है। यदि हम इसे ठहरा हुआ मान लेते हैं तो यह हमारी मूर्खता है। यह ठहराव हमें निराशा से भर देता है, तो बस पानी की तरह बहते जाइए और हर मोड़ पर चलते जाइए, आगे बढ़ते जाइए... कुछ इसी तरह का संदेश देती हैं, गिन्नी आंटी। इस कहानी का आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...



शुक्रवार, 6 मई 2022

कहानी - फटी रजाई.... लेखक - सुधीर कुमार सोनी
















लेखक - सुधीर कुमार सोनी


चित्र : गूगल से साभार

लेखक - सुधीर कुमार सोनी जी वरिष्ठ कहानीकार हैं। आपकी कहानियों में संवेदनाओं का ज्वार उठता हुआ दिखाई देता है। हकीकत की जमीन पर बैठकर हमें कुछ देर सोचने के लिए विवश कर देती हैं इनकी कहानियाँ। आज ऐसी ही एक कहानी से रू-ब-रू होते हैं, ऑडियो की मदद से...



कहानी - पतझड़ - मोनिका राज



चित्र : गूगल से साभार

सुश्री मोनिका राज एक युवा कहानीकार हैं। इनकी कहानियों में दर्द है, संवेदना है, आँसू  हैं और साथ ही आत्मा की गहराइयों से निकली दुआएँऔर मुस्कान भी हैं। श्यामली के माध्यम से औरत की लाचारगी और सहनशीलता को उजागर करता एक संवेदनात्मक सफ़र तय कीजिए, इस ऑडियो के माध्यम से...



अकबर - बीरबल की कहानी - बुद्धि की खेती

 
चित्र : गूगल से साभार

अकबर अकसर अपने मंत्री बीरबल या कह लें कि अपने प्यारे दोस्त बीरबल को कोई न कोई चुनौती देते रहते थे। एक बार ऐसे ही उन्होंने बीरबल को बुद्धि की खेती करने की चुनौती दी। बीरबल ने भी इस चुनौती को हँसते हुए स्वीकार किया। क्या बीरबल इस खेती में सफलता प्राप्त कर पाए? क्या वे अकबर को खुश कर पाए? इसे जानने के लिए सुनिए ये पूरी कहानी ऑडियो के माध्यम से...



ग़ज़ल -सुर्खाब ग़ज़ल - जयकृष्ण राय तुषार













चित्र : गूगल से साभार


शोख इठलाती हुई परियों का है ख़्वाब ग़ज़ल
झील के पानी में उतरे तो है महताब ग़ज़ल

वन में हिरनी की कुलांचे है ये बुलबुल की अदा
चाँदनी रातों में हो जाती है सुर्खाब ग़ज़ल

उसकी आँखों का नशा ,जुल्फ की ख़ुशबू,टीका
रंग और मेहंदी रचे हाथों का आदाब ग़ज़ल

ये तवायफ की,अदीबों की,है उस्तादों की
हिंदी,उर्दू के गुलिस्ताँ में है शादाब ग़ज़ल

कूचा-ए-जानाँ,भी मज़दूर भी,साक़ी ही नहीं
एक शायर की ये दौलत यही असबाब ग़ज़ल

खुल के सावन में मिले और बहारों में खिले
ग़म समंदर का है दरियाओं का सैलाब ग़ज़ल

इसमें मौसीक़ी भी दरबारों की महफ़िल भी यही
अपने महबूब के दीदार को बेताब ग़ज़ल

मेरे सीने में भी कुछ आग,मोहब्बत है तेरी
मेरी शोहरत भी तुझे करती है आदाब ग़ज़ल

इस ग़ज़ल का आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...



गुरुवार, 5 मई 2022

इस पार उस पार - हरिवंशराय बच्चन













चित्र : गुगल से साभार


इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखा‌एँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है!
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जा‌एँगे,
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


प्याला है पर पी पा‌एँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दि‌ए धर कंधों पर, जो रोरोकर हमने ढो‌ए,
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा!
उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सो‌ए!
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूरकठिन को कोस चुके,
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आ‌ऐंगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जा‌एँगी,
जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी,
तब रविशशिपोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मना‌एगी!
जब इस लंबेचौड़े जग का अस्तित्व न रहने पा‌एगा,
तब तेरा मेरा नन्हासा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


ऐसा चिर पतझड़ आ‌एगा, कोयल न कुहुक फिर पा‌एगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगा‌एगी,
अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर 'भरभर' न सुने जा‌एँगे,
अलि‌अवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आ‌एगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जा‌एगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज 'टलमल', सरिता अपना 'कलकल' गायन,
वह गायकनायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!
मुँह खोल खड़े रह जा‌एँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण!
संगीत सजीव हु‌आ जिनमें, जब मौन वही हो जा‌एँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लता‌ओं के गहने,
दो दिन में खींची जा‌एगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पा‌एगा कितने दिन रहने!
जब मूर्तिमती सत्ता‌ओं की शोभाशुषमा लुट जा‌एगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा को‌ई हम सब को खींच बुलाता है!
मैं आज चला तुम आ‌ओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,
दुनिया रोतीधोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।
मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


पाटलिपुत्र की गंगा से - रामधारी सिंह "दिनकर"

















चित्र : गुगल से साभार


सन्ध्या की इस मलिन सेज पर
गंगे! किस विषाद के संग,
सिसक-सिसक कर सुला रही तू
अपने मन की मृदुल उमंग?


उमड़ रही प्लावित कर प्राणों
को कैसी वेदना अथाह?
किस पीड़ा के गहन भार से
निश्चल-सा पड़ गया प्रवाह?


मन के मौन मुकुल से कढ़कर
देवि! कौन - सी व्यथा अपार
बनकर गन्ध अनिल में मिल
जाने को खोज रही लघु द्वार?


चल अतीत की रंगभूमि में
स्मृति-पंखों पर चढ़ अनजान
विकल-चित्त सुनती तू अपने
चन्द्रगुप्त का क्या जय-गान?


घूम रहा पलकों के भीतर
स्वप्नों-सा गत विभव विराट्?
आता है क्या याद मगध का
सुरसरि! वह अशोक सम्राट्?


संन्यासिनी-समान विजन में
धर अतीत गौरव का ध्यान,
रो-रोकर गा रही देवि! क्या
गुप्त-वंश का गरिमा-गान?


गूँज रहे तेरे इस तट पर
गंगे! गौतम के उपदेश;
ध्वनित हो रहे इन लहरों में
देवि! अहिंसा के सन्देश।


कुहुक - कुहुक मृदु गीत वही
गाती कोयल डाली - डाली;
वही स्वर्ण -सन्देश नित्य
बन आता ऊषा की लाली।


तुझे याद है, चढ़े पदों पर
कितने जय-सुमनों के हार?
कितने बार समुद्रगुप्त ने
धोयी है तुझमें तलवार?


तेरे तीरों पर दिग्विजयी
नृप के कितने बड़े निशान!
कितनी चक्रवर्त्तियों ने हैं
किये कूल पर अवभृथ-स्नान?


विजयी चन्द्रगुप्त के पद पर
सेल्यूकस की वह मनुहार,
तुझे याद है, देवि! मगध का
वह विराट् उज्जवल श्रृंगार?


जगती पर छाया करती थी
कभी हमारी भुजा विशाल;
बार-बार झुकते थे पद पर
ग्रीक, यवन के उन्नत भाल।


उस अतीत गौरव की गाथा
छिपी उन्हीं उपकूलों में,
र्कीर्ति-सुरभि वह गमक रही
अब भी तेरे वन-फूलों में।


नियति - नटी ने खेल-कूद में
किया नष्ट सारा श्रृंगार;
खॅंडहर की धूलों में सोया
तेरा स्वर्णोदय साकार।


तूने सुख-सुहाग देखा है,
उदय और फिर अस्त, सखी!
देख, आज निज युवराजों को
भिक्षाटन में व्यस्त, सखी!


एक - एक कर गिरे मुकुट,
विकसित वन भस्मीभूत हुआ;
तेरे सम्मुख महासिन्धु
सूखा, सैकत उद्भूत हुआ।


धधक उठा तेरे मरघट में
जिस दिन सोने का संसार,
एक-एक कर लगा दहकने
मगध - सुन्दरी का श्रृंगार;


जिस दिन जली चिता गौरव की,
जय-भेरी जब मूक हुई;
जमकर पत्थर हुई न क्यों,
यदि टूट नहीं दो टूक हुई?


देवि! आज बज रही छिपी ध्वनि
मिट्टी में नक्कारों की;
गूँज रही झन - झन धूलों में
मौर्यों की तलवारों की।


दायें पार्श्व पड़ा सोता
मिट्टी में मगध शक्तिशाली,
वीर लिच्छवी की विधवा
बायें रोती है वैशाली।


तू निज मानस - ग्रन्थ खोल
दोनों की गरिमा गाती है,
बीचि - दृगों से हेर - हेर
सिर धुन-धुनकर रह जाती है।

देवि! दुखद है वर्तमान का
यह असीम पीड़ा सहना;
कहों सुखद इससे संस्मृति में
है अतीत की रत रहना।


अस्तु, आज गोधूलि-लग्न में
गंगे! मन्द - मन्द बहना,
गाँवों, नगरों के समीप चल
दर्द भरे स्वर में कहना।


सम्प्रति जिसकी दरिद्रता का
करते हो तुम सब उपहास;
वहीं कभी मैंने देखा है
मौर्य-वंश का विभव-विलास।



बुधवार, 4 मई 2022

सखि वे मुझसे कह कर जाते - मैथिलीशरण गुप्त
















चित्र : गुगल से साभार


सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में -
क्षात्र-धर्म के नाते
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,
किसपर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा;
रहे स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते ?
गये तरस ही खाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ?
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते-गाते ?
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।


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मधुबाला - एक फिल्मी सफ़र


चित्र : गुगल से साभार

बसंत. इसका एक और नाम मधुमास. हर साल तय वक्त पर आता है. जब आता है तो प्रकृति का कण-कण ठिठुरता, सिकुड़ता हुआ पाता है. लेकिन ये ऋतुराज है. इस नाते प्रकृति के संरक्षण, उसे नया जीवन देने का दायित्व इस पर है. और अपनी निर्धारित अवधि में वह ऐसा करता भी है. कणों में ऊर्जा भरता है. रगों में रंग भरता है. कोनों में उल्लास भरता है. प्रेम को परवान चढ़ाकर उसे छितराता है. सौंदर्य को चरम पर ले जाकर बिखेरता है. और ठिठुरन, सिकुड़न, जकड़न को साथ ले विदा हो जाता है.


ऐसे मधुमास के करीब-करीब यौवन पर ब्रितानिया-दिल्ली के किसी घर की दहलीज के भीतर एक ‘बाला’ की किलकारी गूंजती है. ये घर अताउल्लाह खां यूसुफजई उर्फ ‘देहलवी’ और आयशा बेगम का है. तारीख है 14 फरवरी और साल 1933 का. इस घर में हुई 11 संतानों में यह पांचवीं है. नाम रखा गया है मुमताज जहां बेगम देहलवी. अभी ये महज नाम है अलबत्ता. क्योंकि किसी को मालूम नहीं है कि ये मुमताज आने वाले महज 36 बसंत के भीतर ही किसी ‘जहां का ताज’ होने वाली है.


मुमताज अभी 5-6 बरस की ही है. मधुमास की पैदाइश. सो, अक्सर ही अलहदा उमंग में रहने वाली. खाती, खेलती है. नाचती, गाती है. सबके मन में उमंग भरती है कि तभी वह अपने परिवार को कांपता, थरथराता देखती है. इंपीरियल टोबैको कंपनी (ITC) ने पिता को नौकरी से निकाल दिया है. तंगहाली में परिवार अपने आप को सिकोड़ने पर मजबूर हो रहा है. लिहाजा, ऋतुराज बसंत की तरह वह बच्ची परिवार के हर कोने में रंग भरने का जिम्मा अपने कांधों पर उठा लेती है. 


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