बुधवार, 4 मई 2022

मधुबाला - एक फिल्मी सफ़र


चित्र : गुगल से साभार

बसंत. इसका एक और नाम मधुमास. हर साल तय वक्त पर आता है. जब आता है तो प्रकृति का कण-कण ठिठुरता, सिकुड़ता हुआ पाता है. लेकिन ये ऋतुराज है. इस नाते प्रकृति के संरक्षण, उसे नया जीवन देने का दायित्व इस पर है. और अपनी निर्धारित अवधि में वह ऐसा करता भी है. कणों में ऊर्जा भरता है. रगों में रंग भरता है. कोनों में उल्लास भरता है. प्रेम को परवान चढ़ाकर उसे छितराता है. सौंदर्य को चरम पर ले जाकर बिखेरता है. और ठिठुरन, सिकुड़न, जकड़न को साथ ले विदा हो जाता है.


ऐसे मधुमास के करीब-करीब यौवन पर ब्रितानिया-दिल्ली के किसी घर की दहलीज के भीतर एक ‘बाला’ की किलकारी गूंजती है. ये घर अताउल्लाह खां यूसुफजई उर्फ ‘देहलवी’ और आयशा बेगम का है. तारीख है 14 फरवरी और साल 1933 का. इस घर में हुई 11 संतानों में यह पांचवीं है. नाम रखा गया है मुमताज जहां बेगम देहलवी. अभी ये महज नाम है अलबत्ता. क्योंकि किसी को मालूम नहीं है कि ये मुमताज आने वाले महज 36 बसंत के भीतर ही किसी ‘जहां का ताज’ होने वाली है.


मुमताज अभी 5-6 बरस की ही है. मधुमास की पैदाइश. सो, अक्सर ही अलहदा उमंग में रहने वाली. खाती, खेलती है. नाचती, गाती है. सबके मन में उमंग भरती है कि तभी वह अपने परिवार को कांपता, थरथराता देखती है. इंपीरियल टोबैको कंपनी (ITC) ने पिता को नौकरी से निकाल दिया है. तंगहाली में परिवार अपने आप को सिकोड़ने पर मजबूर हो रहा है. लिहाजा, ऋतुराज बसंत की तरह वह बच्ची परिवार के हर कोने में रंग भरने का जिम्मा अपने कांधों पर उठा लेती है. 


इसके आगे की कहानी जानिए, ऑडियो के माध्यम से...



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