अग्निकुंड से थी वो जन्मी, सुंदरता की मूरत थी| द्रुपद सुता वो ज्ञान मान में, माँ वाणी की सूरत थी|| आज भूमि पर गिरी पड़ी वो,आभा से भी हीन हुई| इंद्रप्रस्थ की थी वो रानी, पर वैभव से दीन हुई||
श्यामल निर्मल देह सुकोमल, धधक रहा अपमान से| ललना चोटिल थी वो लगती, टूट चुके अभिमान से|| मुखमण्डल पर क्षोभ घना था, आँखों से बहता निर्झर| केश राशियाँ काल सर्प सी, बिखर उड़ रहीं थी फरफर||
बैठे थे धृतराष्ट्र पितामह, द्रोणाचार्य भी साथ में| शूरवीर सम्मानित सारे, हाथ मले बस हाथ में|| वो रानी थी रजस्वला जो, घिरी खड़ी दरबार में| खींच रहा दुःशासन जिनको, पूजित थी संसार में||
दृग कपाट थे बन्द वहां सब, विदुर छोड़ दरबार गये| वाणी से कौरव अब अपने, मर्यादा के पार गये|| कर्ण कहे दुःशासन से अब, पांचाली निर्वस्त्र करो| हार चुके पांडव चौसर में, अब इससे मन मोद भरो||
देख रही कृष्णा बन कातर, शूरवीर अपने स्वामी| बैठे थे लाचार वहां सब, जगत् कहे जिनको नामी|| शोकाकुल थे मौन वहां सब, लज्जा से गड़ते जाते| कौन है मेरा कहे द्रोपदी, कब उत्तर वो दे पाते||
बीच सभा में खड़ी द्रोपदी, मांग रही सत की भिक्षा| कहती है वो राजसभा से, भूल गए क्या सब शिक्षा|| एक वस्त्र में आज यहाँ मैं, दल दल में गिरती जाती| धर्म पुरोधाओं क्या तुमको, लाज तनिक भी है आती||
मान तुम्हारा ही क्या जग में, क्या मेरा सम्मान नहीं| दांव लगा बैठे क्यों पांडव, क्या मुझमें अभिमान नहीं|| बैठे हैं चुप आप पितामह कुल की ज्योति मलीन हुई| आज लगा मुझको धरती ये, वीर पुरुष से हीन हुई||
वस्त्र पकड़ कर खड़ी द्रोपदी, पास खड़ा है दुःशासन| दुर्योधन कहता अब लाओ, जंघा पर दे दो आसन|| बचा सके अब स्वाभिमान को, नियती से वो उलझ पड़ी| बलशाली कौरव के आगे, क्षमता भर थी लड़ी खड़ी||
भूल गई वो राजसभा अब, भूल गई वो मर्यादा| उमड़ पड़े दृग नद से आँसू, पीर बढ़ गई जब ज्यादा|| भूल गई वो तन अपना फिर, भूल गई संसार को| याद रहे बस किशन कन्हाई, थे बचपन के प्यार जो||
आओ सुनो द्वारिकावासी, बनवारी हे गिरधारी| प्रेमरूप गोपी बल्लभ अब, जीवन लगता ये भारी|| झेल रही अपमान यहाँ मैं, शक्तिमान हे मीत सुनो| हार गये हैं पांडव मुझको, अजब खेल की रीत सुनो||
गोविंदा हे कृष्ण कन्हाई, आओ बन जीवन दाता| कहाँ छुपे हो ब्रजनंदन तुम सर्वजगत् के हो ज्ञाता|| मीत! शरण में आन खड़ी मैं, रक्षा मेरी आज करो| लाज बचाने को मधुसूदन, आकर मेरी बाँह धरो||
हे कान्हा आओ की रट सुन कम्पित वसुधा डोल रही| करुणा कातर आर्द्र स्वरों में, हवा वहां की बोल रही|| बेसुध हो फिर गिरी द्रोपदी, धर्म पताका थी रोती| आज एक नारी पुरुषों में, वैभव अपना थी खोती||
दर्पयुक्त मदमस्त दुःशासन, वस्त्र खींचता जोर से| कृष्णा की कातर ध्वनियाँ सब, लोप हुईं थी शोर से|| कोलाहल से भरी सभा वो, कब समझी थी पीर को| लगा हांफने खींच खींच वो, द्रुपद सुता की चीर को||
भूधर एक विशाल बन गया, दस गज वस्त्र अपार हुआ| निर्वस्त्र द्रोपदी को करना, कौरव क्षमता के पार हुआ| लिए वास थे कृष्ण कन्हाई, मलिन रजस्वला चीर में| वस्त्र रूप बन कर वो आये, द्रुपदसुता के पीर में||
भीषण तम जब घना अँधेरा,तिमिर नाश करने आते| ज्ञान मान मर्यादा गरिमा, संबल बन सब पर छाते|| साक्षी बन भगवान कह रहे, मीत सदा अपने होते| विमुख समय में साथी कोई, कभी कहाँ छोड़े रोते||
जय बोलो मधुसूदन की सब,जय बोलो गिरधारी की| जब बोलो सब मीत मिताई,जय बोलो बनवारी की|| जय उसका जो अजिर साथ है, जय भावों के रानी की| जय हो राजा अमर प्रेम के, जय हो प्रीत कहानी की||
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें