रविवार, 24 अक्तूबर 2021

कविता - द्रौपदी चीर हरण


चित्र : गुगल से साभार

अग्निकुंड से थी वो जन्मी, सुंदरता की मूरत थी|
द्रुपद सुता वो ज्ञान मान में, माँ वाणी की सूरत थी||
आज भूमि पर गिरी पड़ी वो,आभा से भी हीन हुई|
इंद्रप्रस्थ की थी वो रानी, पर वैभव से दीन हुई||


श्यामल निर्मल देह सुकोमल, धधक रहा अपमान से|
ललना चोटिल थी वो लगती, टूट चुके अभिमान से||
मुखमण्डल पर क्षोभ घना था, आँखों से बहता निर्झर|
केश राशियाँ काल सर्प सी, बिखर उड़ रहीं थी फरफर||


बैठे थे धृतराष्ट्र पितामह, द्रोणाचार्य भी साथ में|
शूरवीर सम्मानित सारे, हाथ मले बस हाथ में||
वो रानी थी रजस्वला जो, घिरी खड़ी दरबार में|
खींच रहा दुःशासन जिनको, पूजित थी संसार में||


दृग कपाट थे बन्द वहां सब, विदुर छोड़ दरबार गये|
वाणी से कौरव अब अपने, मर्यादा के पार गये||
कर्ण कहे दुःशासन से अब, पांचाली निर्वस्त्र करो|
हार चुके पांडव चौसर में, अब इससे मन मोद भरो||


देख रही कृष्णा बन कातर, शूरवीर अपने स्वामी|
बैठे थे लाचार वहां सब, जगत् कहे जिनको नामी||
शोकाकुल थे मौन वहां सब, लज्जा से गड़ते जाते|
कौन है मेरा कहे द्रोपदी, कब उत्तर वो दे पाते||


बीच सभा में खड़ी द्रोपदी, मांग रही सत की भिक्षा|
कहती है वो राजसभा से, भूल गए क्या सब शिक्षा||
एक वस्त्र में आज यहाँ मैं, दल दल में गिरती जाती|
धर्म पुरोधाओं क्या तुमको, लाज तनिक भी है आती||


मान तुम्हारा ही क्या जग में, क्या मेरा सम्मान नहीं|
दांव लगा बैठे क्यों पांडव, क्या मुझमें अभिमान नहीं||
बैठे हैं चुप आप पितामह कुल की ज्योति मलीन हुई|
आज लगा मुझको धरती ये, वीर पुरुष से हीन हुई||


वस्त्र पकड़ कर खड़ी द्रोपदी, पास खड़ा है दुःशासन|
दुर्योधन कहता अब लाओ, जंघा पर दे दो आसन||
बचा सके अब स्वाभिमान को, नियती से वो उलझ पड़ी|
बलशाली कौरव के आगे, क्षमता भर थी लड़ी खड़ी||


भूल गई वो राजसभा अब, भूल गई वो मर्यादा|
उमड़ पड़े दृग नद से आँसू, पीर बढ़ गई जब ज्यादा||
भूल गई वो तन अपना फिर, भूल गई संसार को|
याद रहे बस किशन कन्हाई, थे बचपन के प्यार जो||


आओ सुनो द्वारिकावासी, बनवारी हे गिरधारी|
प्रेमरूप गोपी बल्लभ अब, जीवन लगता ये भारी||
झेल रही अपमान यहाँ मैं, शक्तिमान हे मीत सुनो|
हार गये हैं पांडव मुझको, अजब खेल की रीत सुनो||


गोविंदा हे कृष्ण कन्हाई, आओ बन जीवन दाता|
कहाँ छुपे हो ब्रजनंदन तुम सर्वजगत् के हो ज्ञाता||
मीत! शरण में आन खड़ी मैं, रक्षा मेरी आज करो|
लाज बचाने को मधुसूदन, आकर मेरी बाँह धरो||


हे कान्हा आओ की रट सुन कम्पित वसुधा डोल रही|
करुणा कातर आर्द्र स्वरों में, हवा वहां की बोल रही||
बेसुध हो फिर गिरी द्रोपदी, धर्म पताका थी रोती|
आज एक नारी पुरुषों में, वैभव अपना थी खोती||


दर्पयुक्त मदमस्त दुःशासन, वस्त्र खींचता जोर से|
कृष्णा की कातर ध्वनियाँ सब, लोप हुईं थी शोर से||
कोलाहल से भरी सभा वो, कब समझी थी पीर को|
लगा हांफने खींच खींच वो, द्रुपद सुता की चीर को||


भूधर एक विशाल बन गया, दस गज वस्त्र अपार हुआ|
निर्वस्त्र द्रोपदी को करना, कौरव क्षमता के पार हुआ|
लिए वास थे कृष्ण कन्हाई, मलिन रजस्वला चीर में|
वस्त्र रूप बन कर वो आये, द्रुपदसुता के पीर में||


भीषण तम जब घना अँधेरा,तिमिर नाश करने आते|
ज्ञान मान मर्यादा गरिमा, संबल बन सब पर छाते||
साक्षी बन भगवान कह रहे, मीत सदा अपने होते|
विमुख समय में साथी कोई, कभी कहाँ छोड़े रोते||


जय बोलो मधुसूदन की सब,जय बोलो गिरधारी की|
जब बोलो सब मीत मिताई,जय बोलो बनवारी की||
जय उसका जो अजिर साथ है, जय भावों के रानी की|
जय हो राजा अमर प्रेम के, जय हो प्रीत कहानी की||


श्वेता राय


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