सोमवार, 7 जून 2021

कविता - ऐ मुसाफिर...



चित्र : गुगल से साभार

ऐ मुसाफिर...

अपने गम को

गीत बनाकर गा लेना

अँधेरे हैं बहुत राहों में

मुस्कानों की शमा जला लेना।

ऊँचे-नीचे रास्ते होंगे

कँटीली झाड़ियाँ होंगी

पैर-पीठ लहुलूहान होंगे

मुश्किलों की आँधियाँ होंगी

तुम जोश‘औ‘जुनून

साँसों में भर लेना

मुस्कानों की शमा जला लेना।

कभी मौसम साथ न देगा

तो कभी साया भी साथ न होगा

कभी इरादे टूट जाएँगे

तो कभी वादे रूठ जाएँगे

कभी अपने छूट जाएँगे

तो कभी सपने लूट जाएँगे

आँसुओं का खारापन

अपने भीतर समा लेना

तुम उम्मीदों से अपना

खाली दामन भर लेना

मुस्कानों की शमा जला लेना।

 ऐ मुसाफिर...

अपने गम को

गीत बनाकर गा लेना।

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