गीतकारी में बात करते हैं– फिल्मी गीतों के पीछे की कहानी के बारे में। आज का गीत है फिल्म मेरा नाम जोकर का प्यारा-सा गीत –
सन 1970 में बनी इस फिल्म का निर्माण और निर्देशन किया था शो मैन राजकपूर जी ने और फिल्म की स्क्रीप्ट लिखी थी – ख्वाजा अहमद अब्बास ने।
अभिनेता, निर्माता-निर्देशक राज कपूर जी अपनी फिल्म संगम की सफलता के बाद मेरा नाम जोकर को लेकर काफी उत्साहित थे। दर्शकों को भी इस जोकर के मंच पर आने का बेसब्री से इंतजार था क्योंकि छः साल से निर्माणाधीन इस फिल्म की कहानी आंशिक रूप से राज कपूर के स्वयं के जीवन पर आधारित थी। आखिर 18 दिसंबर 1970 में मेरा नाम जोकर रिलीज़ हुई थी. इस फिल्म में कई दिग्गज कलाकारों ने काम किया था. धर्मेंद्र , मनोज कुमार, दारा सिंह ,राजेंद्र कुमार, राजेनद्रनाथ, ओमप्रकाश, सिमी ग्रेवाल, पद्मिनी, अचला सचदेव जैसे जाने माने कलाकार थे। दोस्तों, इसी फिल्म से राजकपूर जी के बेटे ऋषिकपूर जी ने पहली बार अभिनय की दुनिया में कदम रखा था और राजकपूर के किशोरवय की भूमिका निभाई थी। वैसे इसके पहले फिल्म श्री चार सौ बीस में प्यार हुआ इकरार हुआ गीत के दौरान गीत के बोल – फिर भी रहेंगी ये निशानियाँ के दौरान जिन तीन बच्चों की झलक आपने देखी होगी, उनमें एक ऋषिकपूर भी थे।
जोश और जुनून से भरे राज साहब जब एक बार कुछ ठान लेते हैं तो उसे पूरा करने के लिए दिन-रात एक कर देते हैं। मेरा नाम जोकर फिल्म को जब उन्होंने बनाना शुरु किया तो इसे पूरा होने में एक दो नहीं पूरे 6 साल का समय लग गया। ये फिल्म उनका जागी आँखों से देखा एक हसींन ख्वाब थी, जिसे वे पूरी शिद्दत से पूरा करने में जुटे हुए थे। इस फिल्म को बनाने में राज साहब ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था समय, पैसा, जुनून, सब कुछ यहाँ तक कि अपना घर गिरवी रख कर वे कर्ज में डूब गए थे।
दोस्तों फिल्म को लेकर एक और खास बात – यह फिल्म बहुत लंबी थी. चार घंटे की इस फिल्म में एक नहीं बल्कि दो इंटरवल डाले गए थे. भारतीय सिनेमा के इतिहास में इसे सबसे लंबी फिल्मों में से एक माना जाता है.
लेकिन फिल्म की रीलिज़ के साथ ही बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को मिली असफलता से राज साहब सदमें में आ गए थे हाँ ये अलग बात है कि आगे चलकर फिल्म को जम कर तारीफ भी मिली और फिल्म हिट भी हुई और ऐसी हिट हुई कि आज भी फिल्म की कहानी, राज साहब का अभिनय, फिल्म के गीत सब कुछ लोगों को अपनी ओर खींचते हैं। फिल्म के सारे गीत आज भी लोगों की ज़ुबां पर है – कहता है जोकर सारा ज़माना, जाने कहाँ गए वो दिन, जीना यहाँ मरना यहाँ, ए भाई जरा देख के चलो.. जैसे कालजयी गीतों में जीवन का दर्द उभर कर सामने आया है। संगीतकार शंकर जयकिशन के संगीत से सजे ये गीत गुनगुनाने को विवश कर देते हैं।
बात करते हैं, आज की गीतकारी के गीत की, ए भाई जरा देख के चलो… गीत के बारे में। इस गीत के बोल लिखे थे – प्रसिद्ध कवि गोपाल दास नीरज जी ने। नीरज वो कवि थे जिनकी लेखनी ने कोरे कागजों को शानदार कविताओं और गीतों का उपहार दिया। उन कविताओं को, गीतों को स्वर मिला और रूपहले पर्दे पर नायक-नायिकाओं के होंठों पर सजकर इन गीतों ने एक नई पहचान पाई। नीरज जी हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में काव्य सृजन करने में माहिर थे। इस गीत को लिखने के पीछे भी मजेदार किस्सा है।
तो हुआ कुछ ऐसा कि राज साहब अपनी फिल्म मेरा नाम जोकर के जरिए जीवन को सर्कस और अपने जोकर के किरदार के माध्यम से आसान तरीके से लोगों को समझाना चाहते थे। इसके लिए उन्हें एक सटीक गीत की तलाश थी। चूँकि वे स्वयं भी गीत-संगीत की बारीकियों की समझ रखते थे। तो उनके दिमाग में सिचुएशन के हिसाब से भाव तो आ रहे थे लेकिन उन्हें किस तरह से सामने लाए, इसमें वे सफल नहीं हो पा रहे थे। भावो-विचारों, शब्दों, कल्पनाओं के जंगल में उलझे हुए वे एक बार गोपाल दास नीरज के साथ अपने मन की बात शेयर करते हुए कार से किसी रास्ते से गुजर रहे थे और तभी लाल बत्ती हो गई। यातायात नियमों का पालन करते हुए कार में ब्रेक लगाया ही था कि किसी दूसरे की गाड़ी से उनकी गाड़ी की टक्कर हो गई। हाँलांकि टक्कर मामूली सी थी लेकिन दूसरी गाड़ी में बैठे शख्स ने नसीहत देते हुए कहा- ऐ भाई, जरा देख के चलो। बस इसी बात ने नीरज जी का ध्यान खींच लिया और फिर थोड़ी देर पहले ही फिल्म की जिस सिचुएशन को लेकर बातचीत चल रही थी, उसी को ध्यान में रखते हुए नीरज जी ने ये बोल तैयार किए -
ए भाई, जरा देख के चलो, आगे ही नहीं पीछे भी,
दाएं ही नहीं बाएं भी। ऊपर ही नहीं, नीचे भी। ए भाई।
अपनी फिल्म के लिए यह गाना पा कर राज कपूर बेहद खुश हुए क्योंकि उन्हें ऐसा ही कुछ चाहिए था, जो नीरज जी ने उन्हें दिया था। अगले ही दिन उन्होंने गीत के ये बोल शंकर जयकिशन और मन्ना दा को सौंप दिए और सुर लय ताल में बाँधने के लिए कहा। शंकर जयकिशन जी ने जब इस अतुकांत रचना को देखा तो उन्हें यह बिलकुल अच्छी नहीं लगी। बिलकुल सीधे-सरल शब्दों का मेल। ऐसा लगा जैसे कोई डायलॉग पकड़ा दिया गया हो और उसे रागों में सजाने के लिए बोला जा रहा हो। संगीतकार शंकर जयकिशन और गायक मन्ना दा तीनों ही इस गीत के बोलों को पढ़कर परेशान हो गए। पर राज साहब का आदेश था तो पूरा तो करना ही था। संगीतकार शंकर जयकिशन द्वारा अनमने ढँग से उसे संगीतबद्ध किया गया और उसी अनमने ढंग से मन्ना दा ने भी गाया। क्योंकि शास्त्रीय संगीत के मर्मज्ञ होने के कारण मन्ना दा को इस गीत के बोलों में कहीं भी रिदम नज़र नहीं आ रही थी। अतुकांत शब्दों की टेढी़-मेढ़ी पगडंडियों को रागों की सड़क तक लाने में उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ी।
लेकिन दोस्तों, अतुकांत गीत भी कई बार अच्छी रचना में बदल जाते हैं ये गीत इसी अच्छी रचना का सजीव उदाहरण बन गया। भले ही शंकर जयकिशन ने अनमने ढंग से इस गीत में संगीत दिया हो पर ध्यान से सुनने पर कहीं न कहीं उनकी संगीत की बारीकियाँ इस गीत में नज़र आ ही जाती है। उसी तरह से भले ही मन्ना दा यह स्वीकार करे कि इसे मैंने अनमने ढँग से गाया है पर गीत की कुछ पंक्तियाँ जैसे कि पहला घंटा बचपन है दूसरा जवानी.. इस अंतरे में ही मन्ना दा की आवाज़ का उतार-चढ़ाव और डूबकर गानेवाली उनकी खासियत को अनदेखा नहीं किया जा सकता। तभी तो इस गीत के लिए सन 1972 में मन्ना दा को सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक का पुरस्कार भी मिला था।
यह पुरस्कार इस बात का प्रमाण है कि मन्नादा केवल शब्दों को ही नहीं गाते थे, अपने गायन से वह शब्द के पीछे छिपे भावों को भी ख़ूबसूरती से सामने लाते थे। संगीत की बारीकियों की समझ रखनेवाले राज साहब ने इस गीत के माध्यम से नीरज जी, मन्ना दा, शंकर-जयकिशन और पूरी फिल्म को अमरत्व प्रदान कर दिया। जीवन सर्कस है और इस सर्कस में आगे-पीछे, दांए-बाए, ऊपर-नीचे चारों ओर देख कर चलना ही पड़ता है। नहीं तेा कुछ भी हो सकता है। इसलिए ए भाई जरा देख के चलो…
दोस्तों, गीतकारी में ऐसे ही गीतों की कड़ियाँ जुड़ती चली जाएँगी और हम जानेंगे गीतों के पीछे की कहानी। तो अगली बार फिर एक नए गीत के साथ मुलाकात होगी। आपकी दोस्त भारती परिमल
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