शनिवार, 13 मई 2023

गीतकारी – 8 क़स्मे वादे प्यार वफा... - उपकार

 

हैलो दोस्तो,


गीतकारी में बात करते हैं– फिल्मी गीतों के पीछे की कहानी के बारे में। आज का गीत है फिल्म उपकार का – कस्मे वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या… 1967 में रिलीज़ हुई फिल्म उपकार ने अभिनेता मनोज कुमार को भारत कुमार का उपनाम दिया। उपकार फिल्म के बनने की भी अपने आप में एक अलग ही कहानी है। पहले बात फिल्म की और उसके बाद फिल्म के गीत की। तो हुआ कुछ ऐसा कि फ़िल्म – शहीद का प्रदर्शन समारोह दिल्ली में आयोजित किया गया था। जिसमें भारत के विलक्षण प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी आए हुए थे। उन्होंने भगत सिंह के जीवन और बलिदान पर आधारित इस फिल्म को देखने के बाद मनोज कुमार से अनुरोध किया कि जय जवान जय किसान, के नारे पर लोगों को प्रेरित करने वाली कोई फ़िल्म बनाए। बात मनोज कुमार के दिल और दिमाग में बैठ गई और उन्होंने दिल्ली से मुंबई की ट्रेन यात्रा में ही ऐसी एक फ़िल्म “उपकार” की कहानी और संकल्पना तैयार कर ली।

पहली बार घोषित रूप से निर्देशन का उत्तरदायित्व लेने वाले मनोज कुमार को मुख्य भूमिका स्वयं ही निभानी थी और अपने छोटे सौतेले भाई के चरित्र की भूमिका में वे संघर्षरत नवोदित अभिनेता राजेश खन्ना को लेना चाहते थे, जिन्हें अभी तक एक भी फ़िल्म नहीं मिली थी, लेकिन उसी समय राजेश खन्ना ने अभिनय प्रतिभा प्रतियोगिता जीत ली और उन्हें प्रतियोगिता के वादों के मुताबिक़ तीन फ़िल्में भी मिल गईं, जिनमें चेतन आनन्द की “आख़िरी ख़त” सबसे पहले बनी|

कभी मनोज कुमार ने शशि कपूर से वादा किया था कि जब भी वे निर्देशन के क्षेत्र में उतरेंगे तब उन्हें अपनी फ़िल्म में अभिनय का अवसर देंगे| लेकिन छोटे भाई की भूमिका नकारात्मक भावों से भरी हुयी थी और शशि कपूर? वे स्वयं को नायक की भूमिकाओं में स्थापित करने के लिए संघर्षरत थे, ऐसे में मनोज कुमार को लगा इस भूमिका को करने से शशि कपूर को नुकसान हो सकता है, इसलिए उन्होंने अपने छोटे भाई की भूमिका निभाने के लिए प्रेम चोपड़ा को अनुबंधित कर लिया| इसके बाद मनोज कुमार की हर फिल्म में प्रेमचोपड़ा भी महत्वपूर्ण भूमिका में नज़र आने लगे।

फ़िल्म में एक बेहद महत्वपूर्ण चरित्र पैरों से अपाहिज मलंग का था, जो एक तरह से पूरे गाँव का रखवाला है| कबीर की तरह सधुक्कड़ी भाषा में सच बोलने वाला फक्कड़ मलंग चाचा जो नायक भारत यानी कि मनोज कुमार से बहुत स्नेह करता है और उसकी सच्चाई और ईमानदारी का कायल होने के बावजूद दुनिया के छल कपट से उसे सावधान भी करता रहता है| मलंग के किरदार के लिए मनोज कुमार ने चयन किया उस समय के मशहूर खलनायक प्राण का।

वैसे तो प्राण ने अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत में नायक की भूमिकाएं की थीं, किंतु उन्हें हीरोइन के साथ पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने-गाने में बेहद झिझक होती थी। इससे बचने के लिए ही उन्होंने खलनायक की भूमिकाएँ स्वीकार की थी। लेकिन गीतों से इस तरह घबराने वाले प्राण के ऊपर हिंदी फिल्मों के कुछ सबसे लोकप्रिय और यादगार गीत फिल्माए गए हैं। इनमें सबसे यादगार गीत है – हमारी आज की गीतकारी का गीत - कसमें वादे प्यार वफा… सब बाते हैं बातों का क्या…। यह फिल्म और यह गीत प्राण के फिल्मी कैरियर को बदलनेवाला साबित हुआ। वे खलनायक से चरित्र अभिनेता के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

श्यामलाल बाबू राय यानी कि इंदीवर जी द्वारा लिखे इस गीत को कल्याणजी-आनंद जी की जोड़ी ने संगीतबद्ध किया था। जब उन्हें यह पता चला कि यह गीत फिल्म में लंगड़े मलंग चाचा का किरदार निभा रहे प्राण पर फिल्माया जाएगा तो उन्होंने फिल्म के निर्माता निर्देशक मनोज कुमार से इसे किसी और पर फिल्माने का अनुरोध किया, लेकिन मनोज कुमार नहीं माने। किशोर दा ने जब सुना कि यह गीत प्राण पर फिल्माया जाएगा तो उन्होंने भी इसे गाने से मना कर दिया, यहां तक कि स्वयं प्राण के कहने पर भी वे तैयार नहीं हुए। अंत में यह गाना मन्ना दा से गवाया गया और उन्होंने इसे ऐसे भाव-विभोर होकर गाया कि यह गीत उनके ‘अमर गीतों’ में शामिल हो गया। मन्ना दा की सुरीली आवाज़ में सजा ये गीत इस फिल्म का निचोड़ है। इस गीत में जीवन की यथार्थता से दर्शकों को रूबरू कराया गया है। मन्ना दा को पक्का विश्वास था कि इस गीत के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार अवश्य मिलेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ जिसका दुख उन्हें ताउम्र रहा।

इस फ़िल्म में एक से बढ़कर एक बेहतरीन गीत थे। सभी गीतों ने बॉलीवुड में धूम मचाई थी। लेकिन कस्मे वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या…. इस गीत की एक अलग ही छवि है, जो अमिट है। संगीतकार जोड़ी कल्याणजी आनंदजी में से कल्याण जी ने अपने एक साक्षात्कार में फिल्मी गीतों को तीन भागों में बाँटा था – होमियोपैथिक, ऐलोपैथिक और आयुर्वेदिक। उनके अनुसार होमियोपैथिक में वे गानें आते हैं जिन्हें बनाते समय उनकी लोकप्रियता की जानकारी नहीं होती। या तो गाना बहुत अच्छा बनेगा या फिर बहुत ही बुरा बनेगा।

ऐलोपैथिक में वे गानें आते हैं जो शुरुआत मे तो सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं पर समय के साथ-साथ उनकी मधुरता कम होने लगती है जिस तरह से ऐलोपैथिक दवाइयों के बाद रीऐक्शन और साइड-ईफ़ेक्ट्स होते हैं। और आयुर्वेदिक गानें वो होते हैं जो पहले सुनने में उतने अच्छे नहीं लगते, पर धीरे-धीरे उनकी मिठास बढ़ती चली जाती है। कल्याणजी भाई की नज़र में "क़स्मे वादे प्यार वफ़ा..." एक आयुर्वेदिक गीत है।

इस गीत की कहानी सुनाते हुए कल्याण जी भाई कहते हैं कि इंदीवर जी ने एक गीत लिखा था जिसे उनके छोटे भाई आनंद जी ने अपने पास रख लिया था। मनोज कुमार ने उस वक़्त कहा था कि मैं इस गीत को अपनी फ़िल्म में इस्तेमाल करूँगा। जब फ़िल्म 'उपकार' बन रही थी, तो उस में ऐसे ही एक गाने की सिचुएशन आ गई जो प्राण साहब पर पिक्चराइज़ होना था। गंभीर रोल निभाने वाले प्राण साहब पर इस गीत का इस्तेमाल करना एक दांव खेलने जैसा था। लेकिन मनोजकुमार ने यह दांव खेला और क्या खूब नतीजा सामने आया। मन्ना दा ने इतनी ख़ूबसूरती के साथ इस गीत को गाया है कि लगता ही नहीं कि किसी ने प्लेबैक किया है। ऐसा लगता है जैसे प्राण साहब ख़ुद गा रहे हैं।"

कल्याणजी ने तो इस गीत की कहानी बहुत ही संक्षिप्त में कह दी पर बाद में जब आनन्दजी विविध भारती में साक्षात्कार के लिए आए तब उन्होंने इस गीत के बारे में विस्तार से बताया था। उन्होंने बताया कि कई गानें होते हैं न जो कभी बन जाते हैं और हम उसे सम्भाल कर रख लेते हैं! इस गीत के साथ भी ऐसा ही हुआ कि मुखड़ा बन गया और फिर मुखड़े के बाद एक अंतरा भी बन गया था। गाना उनके पास सुरक्षित रखा हुआ था।

उन दिनों वे अफ़्रीका से लौट कर आए थे। वहाँ पर उनका एक अफ्रीकी दोस्त था, जो यहाँ मुंबई की एक लड़की से प्यार करता था, उसने आनंद जी से संदेश भिजवाया कि उस लड़की से मिलकर कहना कि मैं आ रहा हूँ, मेरा इंतज़ार करे। आनंद जी ने दोस्त से वादा किया कि वे उनके दिल की बात उस लड़की से कह देंगे।

मगर मुंबई आते ही उनका एक्सीडेंट हो गया। पैर फ्रेक्चर हो गया। उन दिनों वे थोड़े दार्शनिक हो गए थे। हॉस्पिटल में बिस्तर पर लेटे हुए सोचते थे कि न मैंने अपनी माँ को याद किया, न पिता को याद किया, जब दर्द बढ़ा तो ईश्वर को याद करते हुए यही कहा कि सबको सुखी रखना और मेरी जान निकाल ले। बाहर निकलने के बाद लगा कि आदमी अपने दुख के सामने सबको भूल जाता है, पत्नी, बच्चे कुछ भी याद नहीं रहता। इसी सोच के साथ "क़स्मे वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या" का ख़याल आया। ये पंक्तियाँ दिमाग में बैठ गई थी।

बाद में पता चला कि उनका वो अफ्रीकी दोस्त तो इंदीवर जी का भी दोस्त है। तो एक दिन रास्ते में आते-आते इंदीवर जी से कहा, वो दोस्त बेचारा तो अभी भी उम्मीद कर रहा है कि मुंबई आऊँगा और शादी करूँगा, और यहाँ लड़की ने तो शादी कर ली है, मैं उसको क्या कहूँगा?' यह सुनकर इंदीवर जी बोले - "अरे ये सब बातें हैं बातों का क्या?", सुनकर लगा कि यह एक अच्छा मुखड़ा बन सकता है, चलो घर चलते हैं।

घर आकर सारी रात बैठ कर गाना तैयार किया। वहीं पर आनंद जी ने एक बात कही कि इंदीवर जी इस दुनिया का दस्तूर भी क्या खूब है कि एण्ड में इंसान को उसका अपना बेटा ही जलाता है। तो इंदीवर ने लिख दिया - "तेरा अपना ख़ून ही आख़िर तुझको आग लगाएगा"; उसके बाद आनंद जी बोले कि 'क्या कर दिया तुमने?' 'अब मैं घर नहीं जाऊँगा, अब तो डर लगने लगा है मुझे'। और फिर दोनों वहीं बैठ कर दूसरी बातें करते रहे क्योंकि गीत बहुत ही भारी हो गया था उसमें कुछ और जोड़ने का ख्याल भी उन्हें डरा रहा था। तो गाना यहीं तक बनाकर छोड़ दिया गया। और इस तरह से सामने आया एक ऐसा गीत जो अपने आप में पूरा है। इसके बाद और किसी शब्दमाला की इसमें आवश्यकता ही नहीं रही।

मन्ना दा के स्वर में यह गीत एक अमर गीत बन गया। कमाल की बात यह है कि आज इस गीत को बने हुए 50 से भी अधिक साल हो गए हैं पर समय का कोई असर इस गीत पर नहीं हो पाया है। जीवन दर्शन हर दौर में, हर युग में, एक ही रहता है। इस गीत में ज़िंदगी की कड़वी सच्चाइयों को इतने सरल शब्दों में कहा गया है कि आज भी इस गीत को सुनते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

दोस्तों, गीतकारी में ऐसे ही गीतों की कड़ियाँ जुड़ती चली जाएँगी और हम जानेंगे गीतों के पीछे की कहानी। तो अगली बार फिर एक नए गीत के साथ मुलाकात होगी। आपकी दोस्त भारती परिमल

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