शनिवार, 13 मई 2023

गीतकारी – 5 चल री सजनी अब क्या सोचे… बंबई का बाबू





हैलो दोस्तो,
बात करते हैं– फिल्मी गीतों के पीछे की कहानी के बारे में। आज हम बात करते हैं 1960 में निर्माता निर्देशक राज खोसला द्वारा बनाई गई फिल्म बंबई का बाबू के गीत चल री सजनी अब क्या सोचे, कजरा ना बह जाए रोते-रोते…. दर्द भरे इस गीत के गायक थे मुकेश। फिल्म के निर्माता राजखोसला जी पार्श्वगायक बनने की तमन्ना लिए हुए मुंबई आए थे लेकिन हाथों की लकीरों में तो निर्माता बनना लिखा हुआ था। शुरुआत में फिल्म बाज़ी में गुरुदत्त जी के साथ सहायक निर्देशन करने के बाद उन्होंने स्वतंत्र रूप से निर्देशन शुरु किया और फिर 1960 में जाल मिस्त्री के साथ मिलकर बंबई का बाबू फिल्म का निर्माण किया।
दोस्तों, यह वही राज खोसला हैं जिनके काबिले तारीफ निर्देशन ने हिन्दी सिनेमा को सीआईडी, वो कौन थी और मेरा साया जैसी रहस्यमयीं फिल्में दीं। उनके निर्देशन में बनी ‘बम्बई का बाबू’ एक ऐसी फिल्म है जिसे बार-बार देखने को मन करता है। उस जमाने में नायक-नायिका के अलावा फिल्म को हिट बनाने में योगदान होता था - गीत और संगीत का। मजरूह सुलतानपुरी के गीतों से सजी इस फिल्म को संगीत दिया था सचिन देव बर्मन ने। मुकेश के ‘चल री सजनी अब क्या सोचे’ तथा मुहम्मद रफी के साथ आशा भौंसले के स्वरबद्ध किए गीत 'दीवाना मस्ताना हुआ दिल जाने कहां हो के बहार आयी’ देखने में भोला है… ये सभी गीत आज भी उसी शिद्दत से सुने जाते हैं। राजिन्दर सिंह बेदी द्वारा लिखी गयी पटकथा अमेरिकी लेखक ओ. हेनरी की एक लघुकथा से प्रेरित कही जा सकती है। बात करते हैँ - गीत चल री सजनी अब क्या सोचे, गीत की। अपने ज़माने की मशहूर अभिनेत्री सुचित्रा सेन और अभिनेता देवआनंद पर यह गीत फिल्माया गया था। यह एक विदाई गीत है। हिंदी फिल्मों में पुराने विदाई गीतों की बात करें तो सबसे पहला गीत जो हमारे होठों पर आता है वो है – बाबुल की दुआएँ लेती जा। या फिर पी के घर आज प्यारी दुलहनिया चली लेकिन इस विषय पर और भी बहुत ही खूबसूरत गीत बने हैं और बनते रहेंगे। फिर भी चल री सजनी अब क्या सोचे… गीत में मुकेश की आवाज के साथ जो दर्द बहा है, इसे सुनकर तो इस गीत को फिल्म संगीत का पहला विदाई गीत कहा जा सकता है।
बंबई का बाबू फिल्म की कहानी के अनुसार यह गीत फिल्म में एक खास जगह रखता है। इस गीत में एक तरफ बाबुल के घर से विदा होती बेटी का दर्द है तो दूसरी तरफ अपने प्रेमी और फिल्म के नायक देव आनंद से बिछड़ने की पीड़ा भी है। दर्द के यह दोनों पहलू सुचित्रा सेन के अभिनय से सजीव हो उठे। गीत और भी गमगीन बन गया।
फिल्म के बाकी गीतों में रफी साहब की आवाज थी लेकिन इस गीत के लिए सचिन देव बर्मन ने धुन तैयार कर ली थी। वे चाहते थे कि किशोर कुमार इस गीत को अपनी आवाज दे। इसके लिए उन्होंने किशोर कुमार से बात भी कर ली थी। किशोर कुमार ने जवाब तो हाँ में दिया था पर वे समय नहीं दे पा रहे थे। वैसे तो वे सचिन देव बर्मन का बहुत सम्मान करते थे लेकिन स्वभाव से मनमौजी थे। जब भी सचिन दा उन्हें गीत की रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो बुलाते वे कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देते थे। समय बीता जा रहा था और आज कल करते हुए रिकॉर्डिंग टलती जा रही थी। सचिन दा ने कई दिनों तक इंतजार किया। आखिर किसी ने उन्हें सलाह दी कि दादा, आप तो किशोर दा के चक्कर में न पड़े और किसी और से यह गीत गवा लीजिए। आखिर सचिन दा को निराश होकर किशोर की आवाज का मोह त्याग कर किसी और की तलाश करनी पड़ी और किसी और को खोजते हुए उनका ध्यान गया मुकेश की तरफ। उन्होंने मुकेश से इस गीत को गवाया और मुकेश ने जो आवाज़ का दर्द इस गीत में उड़ेला कि गीत अमर हो गया। गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस गीत के साथ मुकेश ने पूरा न्याय किया। चल री सजनी अब क्या सोचे, कजरा ना बह जाए रोते रोते…. दर्द भरा एक ऐसा नगमा है जो मुकेश को याद करते हुए बरबस गुनगुनाने को विवश कर जाता है। इस गीत में सचिन देव बर्मन ने कोरस का बहुत अच्छी तरह से प्रयोग किया है। केवल शहनाई की गूँज और कोरस ने ही गीत में जान डाल दी है।
दोस्तों, जब आप ये गीत ध्यान से सुनेंगे तो पाएँगे कि गीत के आखरी में करीब डेढ़ मिनट का संगीत शहनाई और कोरल सिंगिंग से ही बना है। एक ऐसा संगीत जो कानों से सीधे दिल में उतरता है। बोलों में शब्दों का ऐसा तालमेल और फिर दर्द भरे सुरों का नजराना। सचमुच मजरूह सुल्तानपुरी, मुकेश और सचिन दा सभी ने मिलकर इस विदाई गीत को अमर कर दिया।
हालाँकि फिल्म दर्शकों के बीच सराही गई लेकिन सराहना के बावजूद इसे बॉक्स आॅफिस पर अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। फिल्म की असफलता ने राज खोसला जी आर्थिक तंगी में फंस गए। असफलता का मुख्य कारण नायक-नायिका को भाई-बहन के रूप में दिखाया जाना रहा क्योंकि दर्शकों ने इसे स्वीकार नहीं किया और फिल्म कामयाबी का वो मुकाम हासिल नहीं कर सकी, जिसकी कल्पना खोसला जी ने की थी। पहले इस फिल्म में नायिका के रूप में मधुबाला को लिया जाना था फिर राजखोसला जी ने सुचित्रा सेन को रूपहले पर्दे पर उतार कर इस फिल्म की शुरुआत की।
अभिनेत्री सुचित्रासेन की अभिनय कला से सजा ये विदाई गीत सचमुच एक अमर गीत बन पड़ा है। बेटी का बाबुल से बिछड़ने का दर्द, सखियों से दूर होने की पीड़ा, एक पिता की लाचारगी और ममत्व का सूना आँगन, मेंहदी से सजे हाथों में बचपन की यादों का अमिट खजाना और आँखों में केवल आँसूआ का उफनता ज्वार… सब कुछ कुछ पलों में ही वातावरण को गंभीर बना देता है और आँखें बरबस ही भीग जाती है।
गीतकारी में ऐसे ही गीतों की कड़ियाँ जुड़ती चली जाएँगी और हम जानेंगे गीतों के पीछे की कहानी। तो अगली बार फिर एक नए गीत के साथ मुलाकात होगी। आपकी दोस्त भारती परिमल

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