कभी ऑफलाइन होकर जिंदगी को देखो कितनी हसीन है, महसूस करके देखो कभी बादलों के साथ उड़ा जा रहा है मन कभी हरी भरी वादियों में अटक गया है मन तमाम भटकनों से दूर इन मखमली फिज़ाओं में भटककर देखो कभी ऑफलाइन होकर जिंदगी को देखो।
कभी चुप है जमीं-आसमाँ और गूँजता है भीगा भीगा-सा मन कभी पिघल रहा है मन कभी घटाओं में घुल रहा है मन पिघलते मोम-सा बूँद-बूँद पिघलकर देखो। कभी ऑफलाइन होकर जिंदगी को देखो।
तन तो है बर्फ सा जमा हुआ पर मन की उड़ान रोक ना सका नीला-नीला ये गगन कभी पंछी बन पंख पसार बादलों के पार की दुनिया खोजकर देखो। कभी ऑफलाइन होकर जिंदगी को देखो।
आँसुओं की झील भी छलक उठी है आज जीने का मिल गया है एक नया अंदाज हर शाख पर सरसराते पत्तों ने छेड़ा है नया राग कभी राग-रागिनियों की गूँज में खोकर देखो कभी ऑफलाइन होकर जिंदगी को देखो।
स्वप्न सारे जो बसे थे पलकों पर उन्हें हकीकत की ज़मीन पर उतारकर कभी इस हरीतिमा की गोद में हरसिंगार-सा संवरकर खुद का अक्स देखो। कभी ऑफलाइन होकर जिंदगी को देखो
इस चुप्पी में मिल गया जीवन का नव गीत है ये गीत ही मन का मीत है इस मीत से प्रीत निभाकर देखो कभी गीत और गूँज का मेल मन भरकर देखो कभी ऑफलाइन होकर जिंदगी को देखो।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें