ऐ दोस्त
किसी रोज़
वक्त निकाल कर
घर की दहलीज़ पर आ जाना
फुरसत के कालीन पर बैठ
कॉफ़ी की चुस्कियों के साथ
गप्पों की महफ़िल सजाएँगे
मैं-तुम, हम बनकर
बेनूरी शाम रंगीन बनाएँगे।
हर तरफ जो उदासी का मंजर है
सूनेपन का बहता दरिया है
उसे पार कर कहकहों की
मीठी ग़ज़ल गुनगुनाएँगे
मैं-तुम, हम बनकर
बेनूरी शाम रंगीन बनाएँगे।
वो बचपन की हँसी-ठिठोली
खेलों की आँखमिचोली
मस्ती का मैदान, शरारतों का आँगन
एक दूजे के साथ फिर सजाएँगे
मैं-तुम, हम बनकर
बेनूरी शाम रंगीन बनाएँगे।
ऐ दोस्त
किसी रोज़
वक्त निकाल कर
घर की दहलीज़ पर आ जाना।
इस
कविता का आनंद लीजिए, इस ऑडियो के माध्यम से...
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