शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

कविता - हमारा भोपाल




चित्र : गुगल से साभार

भोपाल शहर का क्या कहना
हर बात निराली होती है
हर दिन मनती है ईद यहाँ
हर रात दिवाली होती है
यह शहर नहीं, एक जज़्बा है
हर शख्स यहाँ है नवाब
हर मोहतरमा बेगम है
हर बच्चा शहज़ादा है जनाब।


जब भोर हुए सूरज आता
तब झील बड़ी सज जाती है
सिंदूरी रंग के पानी से
आरती उतारी जाती है
मंदिर के घंटो की घन-घन
मस्जिद से उठती है अज़ान
पौधे किलोल की बगिया के
फिर से पा लेते नई जान
पेड़ों के पत्तों पर मोती
जैसे सज जाती शबनम है
शामला पहाड़ी पर बिछती
हरियाली की चादर नम है


मोती जैसे मोती मस्जिद
ताज़ुल मसाज़िद है ताज यहाँ
बिड़ला मंदिर उत्तंग शिखर सम
उस  पर्वत पर खड़ा हुआ
जब वनविहार में कदम रखो
कुदरत के पास पहुँच जाते
वन के राजा को देख वहाँ
खुद जंगल में ही खो जाते


भारत भवन की है शान जुदा
जीवंत कला हर हो जाती
सपने जैसे सच हो जाते
आँखें सपनों में खो जाती
साँची स्तूप के पास पहुँच
मन शांत स्वयं हो जाता है
और भीमबैठका में आकर
इतिहास सत्य बन जाता है
हम कितना भी देखें इसको 
फिर भी बाकी रह जाता है


ज़ामा मस्ज़िद और चौक में जब
जाते ही दिल भर जाता है
बन्ने चाचा की शहनाई
रतलामी जी की सेव यहाँ
इब्राहिमपुरा के टोस्ट गज़ब
घंटेवालों की मिठाई यहाँ
बसस्टापों के नाम यहाँ
नंबर से जाने जाते हैं
1250, 2, ढाई भी 
ग्यारह नंबर तक पाते हैं


पोहा और जलेबी न पाएँ तो
पेट कहाँ भर पाता है
एक हाथ कचौड़ी को लेते
दूजे में समोसा होता है
भारत, भोपाल, अल्पना, लिलि 
रंगमहल, संगीत और गूँज थे जब
जो फिल्म का आनंद आता था
पीवीआर और मॉल ने छीना सब


हर इन्साँ दोस्त यहाँ पर है
हर घर अपना-सा लगता है
हर बिटिया का पीहर भी है
ससुराल उनका सजता है
एक-दूजे पर विश्वास यहाँ
सब साथ खड़े हो जाते हैं
ग़र मुश्किल में पड़ जाएँ तो
सबकाे अपना ही पाते हैं


हो हिंदू चाहे हो मुस्लिम
सिक्ख, इसाई या बौद्ध यहाँ
सब साथ रहे मिलजुल कर ही
भोपाल की है बस यही फिजाँ
हम चाहें कितने दूर रहें
पर दूर न इससे हो पाएँ
हर भोपाली के दिल में बस
भोपाल को ही हरदम पाएँ


भोपाल को समर्पित इस कविता के लिए हम अपने व्हाट्सअप मित्रों के आभारी हैं।




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