कविता - शब्दों के व्यापारी
चित्र : गुगल से साभार
हम शब्दों के व्यापारी हैं
शब्द बेचते हैं
बोलो खरीदोगे ?
हमारे शब्दकोश में
सच्चाई बिकती है
निर्वसन होकर
क्या तुम इसे खरीदकर
अपने विचारों के
कोष में रखकर
ईमानदारी का वसन पहनाओगे ?
जवाब दो!
हम तुम्हारा जवाब सुनने व्याकुल हैं
यह जवाब तुम्हारा चरित्र है
और हमारा अधिकार!
अगर तुम्हारा जवाब हाँ है
तो हमें खुशी है
कि तुम अभी भी जी रहे हो
शब्दों को विचारों में
घोलकर पी रहे हो।
यदि तुम्हारा जवाब ना है
तो बिना कोई सवाल किए
आगे बढ़ जाओ
यहाँ तुम्हारे सवाल की भी
कोई अहमियत नहीं है
चलते जाओ असत्य की राहों पर
जितना खरीद सकते हो
खरीद लो-सफेद पोशाक में लिपटा
सफेद झूठ।
तुम्हारा यह झूठ
जीवन को नया रूप देगा
विचारों को नवस्वरूप देगा
आधुनिकता का दलदल
बढ़ता जाएगा
कुविचारों सहित
तुम इसमें फँसते जाओगे
तब एक मोड़ पर
फिर मुलाकात होगी
हम शब्दों के व्यापारी से
कुछ निराशा लिए
तुम पूछोगे-
क्या हमें शब्द बेचोगे ?
तब हमारी बूढ़ी आँखें
चमक उठेंगी
और काँपते होंठ कह उठेंगे-
यही तो हमारा कर्म है।
खुश हो जाओगे तुम
हमारे इस कर्म पर
लेकिन तब तक
तुम्हारे हाथों में जाते ही
सच्चाई
झूठ के हाथों बिक जाएगी।
आज बने हैं हम
शब्दों के व्यापारी
कल बनोगे तुम व्यापारी
हमारी तरह तुम भी कहोगे
सच्चाई बिकती है
बोलो खरीदोगे ?
कब तक चलेगा यह क्रम ?
कुछ तो बदलाव लाओ
सच्चाई को झूठ का नहीं
सच का आईना दिखलाओ।
इस कविता का आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...
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