सोमवार, 11 अक्तूबर 2021

कविता - ख्वाईश में...


चित्र : गुगल से साभार


 हथेलियों की


उलझी रेखाओं के 


जंगल से होकर


तुम तक पहुँचने की


ख्वाईश में...


ना जाने कितने


पलाश के फूलों को,


चिनार के पत्तो को 
 
क़दमों तले रौंदा है


 ताज़गी से लबरेज़


हवाओं में समाई महक को


साँसों में भरा है


जंगल के उस पार पहुँचकर


झील में खुद का ही


अक्स निहारा है


इस इंतज़ार में कि


एक अक्स तुम्हारा भी नज़र आएगा


पिघलती शाम में


और गहराती रात में


चाँद से बातें की है


तन्हा वो भी था,


तन्हा मैं भी थी।


कभी वो आधा था,


तो कभी वो पूरा था


पर अधूरी रही मैं हरदम


ख्वाईश में तुम्हारी


अब तो रेखाओं का जंगल भी


उजड़ने लगा है


पलाश, चिनार


सूखने लगे हैं


और सूखने लगी है झील


पर इंतज़ार का सूरज डूबा नहीं है


अब भी ये सूरज


चाँदनी के साए में


तुम्हें ढूँढता है


उम्मीद का एक मोती


कभी आँखों से होकर


मेरी हथेली में समा जाता है।

 

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