मंगलवार, 12 अक्तूबर 2021

कविता - अर्जुन की प्रतिज्ञा


- मैथिलीशरण गुप्त 





चित्र : गुगल से साभार

उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा,


मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा ।


मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ,


प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ?


युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से,


अब रोश के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से ।


निश्चय अरुणिमा-मिस अनल की जल उठी वह ज्वाल ही,


तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही ।


साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं,


पूरा करूँगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं ।


जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी,


वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी ।


अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है,


इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है,


उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है,


उन्मुक्त बस उसके लिये रौख नरक का द्वार है ।


उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है,


पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है ।


अतएव कल उस नीच को रण-मघ्य जो मारूँ न मैं,


तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं ।


अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही,


साक्षी रहे सुन ये बचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही ।


सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वधकरूँ,


तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ ।


इस कविता का आनंद लीजिए ऑडियो की मदद से...



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