आखिर उसने
थाम ही लिए
अपने नाजुक हाथों में
पेंट और ब्रश
और बना लिया
दीवार को कैनवास।
दे रही है
अपनी कल्पनाओं से
मेरे सपनों को आकार।
वो जानती है
तैयार करनी है उसे
यादों की धरोहर
जो मेरे अकेलेपन की
साथी बने।
इसके लिए
तन-मन-धन समर्पित कर
वह बन गई है
केवल एक कलाकार।
मैं जानती हूँ
इस वक्त उसे
भूख-प्यास नहीं लगती
दोस्तों की याद नहीं सताती
मोबाइल से भी
तोड़ लिया है नाता।
बस उससे केवल
इतना ही है वास्ता
कि गीतों की गुनगुन के साथ
वो तय कर रही है
हमारी चाहतों का सफर।
पापा-मम्मा और भई को
दे सके रंगों का उपहार
इसके लिए खुद को
कर लिया है तैयार।
वो मना रही है पल-पल
रंगों का उत्सव
तैयार होती धरोहर का
रंगीला महोत्सव।
मैं अपने आप से पूछती हूँ -
क्या बेटियाँ ऐसी होती हैं?
और दिल मुस्कराते हुए
कहता है-
हाँ, बेटियाँ ऐसी ही होती हैं।
इस कविता का आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...
मंगलवार, 2 अगस्त 2022
कविता - यादों की धरोहर
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