कविता - ऋतुएँ गाती हैं
चित्र : गूगल से साभार
कोई राग थिरकता है मेरे भीतर
झिलमिलाती साँझ में
मैं निकल पड़ती हूँ
बीहड़ हवाओं से होते हुए
किसी नदी के किनारे
जीवन के अनछुए-अनकहे
पहलुओं से रूबरू होते हुए
तुम भी वहीं कहीं होते हो
हाँ, वहीं कहीं....
दोस्तो, इस अधूरी कविता को पूरी सुनने का आनंद लीजिए,
ऑडियो की मदद से...
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