शनिवार, 3 सितंबर 2022

कविता - मुलाकात


मुलाकात

 

चलो आज खुद से मुलाकात करते हैं

बैठ कर फुरसत में बातें दो-चार करते हैं।

उम्र का इक मोड़ वो भी था

न कोई ज़रूरत थी, न कोई जरूरी था

न रोने की वजह थी, न हँसने का बहाना था

बड़ा ही खूबसूरत वो बचपन का ज़माना था

आज उम्र के इस मोड़ पर

उसी ज़माने से आँखें चार करते हैं

हिदायतों की देहरी लाँघकर

मस्तियों से मुलाकात करते हैं

बैठ कर फुरसत में बातें दो-चार करते हैं।

 

नादान बचपन खुली आँखों में ही

सपने हजार भर लेता था

शरारतों की कूचियों से ही

उनमें रंग बेशुमार भर लेता था

मौसमी बारिश में

डूबती-उतराती कागज़ की कश्तियों में

गरमागरम भुट्‌टों और पकौड़ों का दौर

गुलज़ार कर लेता था

छीना-झपटी और नोंक-झोंक की

भूली-बिसरी गलियों से मुलाकात करते हैं

बैठ कर फुरसत में बातें दो-चार करते हैं।

 

रूठना-मनाना, पेड़ों पर झूलों की पेंगे बढ़ाना

छिपना-छिपाना, मिट्‌टी के घरोंदे तोड़ना-बनाना

नानी-दादी को घेर कर कहानियों का चौपाल सजाना

यादों के इन गोलगप्पों में

हँसने-हँसाने, रोने-रूलाने का

खट्‌टा-मीठा पानी भरते हैं

सी-सी कर खाने और

आँख-नाक से पानी टपकाने की

वो ठेलों की तीखी-चटपटी शाम याद करते हैं

एक बार फिर पुराने अलबम के साथ

अधपके बालों और उभरती झाइयों के साथ

नटखट बचपन से मुलाकात करते हैं

बैठ कर फुरसत में बातें दो-चार करते हैं।

 



 

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