बैठ गई जंगल के बीच बंदरिया,
माँगने लगी बंदर से,
आठ-दस चुनरिया।
सुनकर उछला बंदर और बोला –
हो गई हो क्या तुम पगलिया?
आठ-दस चुनरियाँ? कहाँ से लाऊँ?
मुरादें तेरी पूरी करने में,
मैं तो जेब से खाली हो जाऊँ।
नहीं है पास मेरे पैसे इतने
ना जाने बेलने पड़ेंगे पापड़ कितने।
बोली बंदरिया- मैं जाऊँगी तुमसे रूठ,
मैंने बोला है, सखियों से झूठ।
जो ना लाए तुम चुनरिया,
पकड़ा जाएगा मेरा झूठ।
अकड़कर बोला बंदर –
तुम्हारा झूठ, सच करने को,
मैं ही मिला बकरा बनने को?
रोज क्रीम-पाउडर में,
पानी की तरह रूपया बहाती हो।
सखियों के आगे,
अपनी धाक जमाती हो।
सोच-समझकर खर्च करो पैसे,
नहीं आते पैसे ऐसे-वैसे।
दिन-रात मेहनत करता हूँ,
कई जगह हम्माली करता हूँ।
तब जुड़ते हैं कुछ पैसे,
तुम्हें दे दूँ मैं कैसे?
चुनरिया घर में इतनी सारी है,
सभी तो प्यारी-प्यारी है।
पहन इसे तुम लगती रानी,
फिर क्यों झूठी शान और मनमानी?
जितना है, उतने में गुजारा कर लो,
दिखावा छोड़, सच्चाई से प्यार कर लो।
बात बंदर की, बंदरिया को समझ में आई,
माफी माँगी और अपनी गलती पर पछताई।
इस कविता का आनंद लीेजिए, ऑडियो की मदद से...
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