लेख - चिट्ठियाँ...
थकी-हारी, बेबस, दम तोड़ती चिट्ठियाँ पुराने दौर की होकर भी आज तक हमारी आँखों में बसी हुई हैं। कभी ये चंचल है, तो कभी गंभीर। कभी ताजगी का झौंका है तो कभी उदासी का सागर। कभी शर्माती-सकुचाती दुल्हन का श्रृंगार है तो कभी ममत्व का उमड़ता सावन। कभी ये भाई की कलाई पर बंधी राखी-सी बहना के प्यार की पहचान है तो कभी बहना की चुटिया पर कसा हुआ शरारती, चंचल और नटखट भाई का दुलार है। कभी पति-पत्नी के त्याग-समर्पण और प्रेम का उपहार है तो कभी युवा हृदय में प्रस्फुटित प्रेम की पहली फुहार है। कभी ये पिता का विश्वास है तो कभी लाडली बिटिया या बेटे के मन की उमंग है। लहर, तरंग, ज्वार, समंदर, मौसम, उल्लास, उमंग, जोश, जुनून…. और न जाने क्या-क्या उपमाओं से सजी-सँवरी ये चिट्ठियाँ आज कराह रही हैं, सिसक रही हैं और नई तकनीकी जाल में उलझकर दम तोड़ रही हैं।
इस लेख का आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...
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