कवि - आचार्य श्री रामशरण शर्मा
चित्र : गूगल से साभार
कवि - आचार्य श्री रामशरण शर्मा
आखिर उसने
थाम ही लिए
अपने नाजुक हाथों में
पेंट और ब्रश
और बना लिया
दीवार को कैनवास।
दे रही है
अपनी कल्पनाओं से
मेरे सपनों को आकार।
वो जानती है
तैयार करनी है उसे
यादों की धरोहर
जो मेरे अकेलेपन की
साथी बने।
इसके लिए
तन-मन-धन समर्पित कर
वह बन गई है
केवल एक कलाकार।
मैं जानती हूँ
इस वक्त उसे
भूख-प्यास नहीं लगती
दोस्तों की याद नहीं सताती
मोबाइल से भी
तोड़ लिया है नाता।
बस उससे केवल
इतना ही है वास्ता
कि गीतों की गुनगुन के साथ
वो तय कर रही है
हमारी चाहतों का सफर।
पापा-मम्मा और भई को
दे सके रंगों का उपहार
इसके लिए खुद को
कर लिया है तैयार।
वो मना रही है पल-पल
रंगों का उत्सव
तैयार होती धरोहर का
रंगीला महोत्सव।
मैं अपने आप से पूछती हूँ -
क्या बेटियाँ ऐसी होती हैं?
और दिल मुस्कराते हुए
कहता है-
हाँ, बेटियाँ ऐसी ही होती हैं।
इस कविता का आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...
हे पुरुष...
मैं नारी हूँ
सृष्टि के सृजनकर्ता की अनुपम कृति।
मुझमें समाई है...
लज्जा, संवेदना, संस्कृति...
जब मेरे अधरों पर लरजते गीत है,
तो जीवन बन जाता संगीत है
पैरों में खनकती पायल की झंकार है,
तो जीवन खुशियों की टंकार है
मैं नारी हूँ।
इतिहास गवाह है...
कई युद्ध हुए हैं, केवल मेरे लिए
मेरी हँसी से लहू की नदियाँ बही
मेरे आँसुओं से स्वर्ण लंका ढही
किसी को जीत मिली,
तो किसी को हार
किंतु दांव पर मैं ही लगी हर बार
और तुम अपनी श्रेष्ठता पर
मुस्कराए बार-बार
क्योंकि मैं नारी हूँ।
मैं ही धूप में झुलसती
मीलों दूर से गागर भर लाती हूँ
तुम्हारी प्यास बुझाती हूँ
फिर आग में खुद को झोंककर
रोटियाँ सेंकती हूँ
तुम्हारी भूख शांत करती हूँ
तुम्हारे लिए खटती हूँ दिन-रात
फिर भी नजर में तुम्हारी
नहीं है मेरी कोई बिसात
क्योंकि मैं नारी हूँ।
मैंने तुम्हारे लिए
तन-मन समर्पित किया
धन समर्पण में भी पीछे नहीं रही
त्याग, तपस्या, अर्पण, समर्पण,
सेवा, बलिदान, श्रद्धा, निष्ठा
कई अलंकारों से अलंकृत मैं
कन्या, युवती और नारी के रूप में
बार-बार शोषित होती रही
तुम हर बार मुझ पर हावी होते रहे
अत्याचार की हदें पार करते रहे
और मैं आँखों में भविष्य का
अंधकार समेटे सिसकती रही
क्योंकि मैं नारी हूँ।
मेरा सृजन कर ईश्वर भी
गर्व से भर उठा
मुझमें समाहित कर दी सृजन शक्ति
और शक्ति स्रोत से
बहने लगी संसार सलिला
किंतु इसका श्रेय
केवल मुझे नहीं तुम्हें भी है
सनातन सत्य है....
नर और नारी
दोनों संसार के सम सूत्रधार
जीवन का आधार
फिर क्यों सर्वोच्च होने के
ले लिए तुमने सारे अधिकार?
एक कलाकार भी
कलाकृति पर
लिखता है अपना नाम
लेकिन मेरी ही कृति को
संसार में मिला तुम्हारा नाम
और मैं रही गुमनाम!
क्या ये नहीं है मेरा अपमान?
याद रखो,
मैं केवल नारी नहीं, एक माँ भी हूँ
मेरे हृदय में
ममता का सागर लहराता है
आँचल में स्नेह रस बरसता है
जब भी मेरी अस्मिता को ललकारोगे
मेरा प्रतिरूप मिटाने आगे आओगे
सहन नहीं कर पाऊँगी मैं
फूल से शूल बन जाऊँगी
दुर्गा से काली बन जाऊँगी
विनाश-महाविनाश का
ऐसा तांडव रचाऊँगी
कि प्रलय को क्षणभर में
तुम्हारे पास ले आऊँगी
इसलिए, हे पुरुष
मुझे आंदोलित न करो,
अपमानित न करो।
मुझे प्रेरित करो...
उत्साहित करो...
मेरे आगे नहीं, मेरे पीछे भी नहीं,
मेरे साथ-साथ चलो
कदम से कदम मिलाकर चलो
चलते चलो... चलते चलो...
चलते चलो...
इस कविता का आनंद लीजिए, ऑडियो की मदद से...
एक था जंगल, जिसमें रहते थे जोजो और मोंटी बंदर। दोनों ही गहरे दोस्त थे। एक-दूसरे के साथ खेलते-खाते, झूमते-गाते और शरारतें करते हुए दिन बिताते। जोजो जहाँ फुर्तीला और तेज दिमाग का था। वहीं मोंटी थोड़ा आलसी और कमअक्ल था। एक बार दोनों के सामने बड़ी मुसीबत आ गई। जोजो ने तो उस मुसीबत से बचने का उपाय खोज लिया पर क्या मोंटी खोज पाया? क्या जोजो ने अपने दोस्त को मुसीबत से बचाया? इन्हीं सवालों के जवाब जानने के लिए लीजिए ऑडियो की मदद...